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________________ ल्या रीका हि. वि. न चोक्तस्मरणानुपपति, पूर्वघटनाशानन्तर खण्डघटे कारणगुणप्रक्रमेण तद्गुणसमय पूर्वशरीरमाता सरसरमा सगुणसक्रमाम् । न चैत्रपपयविशानादारव यत्रज्ञानादितताकरपने गौरखें, फरलमुखत्वात् । मास्तु वाऽवयवी, विजातीयसंयोगेनैव तदन्यथासिद्धेः । तथा व पारीरान्तरोत्पादेऽपि शरीरत्वघटकविभातीयसंयोगविशिष्टाणुचिसंस्कारास् तामस्मरणोपपत्तिः । जा सकता । 'मनुष्यमादि शरीर को जलागिप्रतिक न मानने पर उसमें जलादि के धर्म का (भीमापन) माधि की प्रतीति न हो सकेगी'-याशका भी उचित नहीं है, प्रतीति हो सकती है, क्योंकि मनुष्यादि के शरीर में जलादि का उपएम्भक-धारक संयोग सदैव रहने से कलादि कप उपाधि के कारण उनमें जलादि के धर्म की औपाधिक प्रतीति होने में कोई बाधा नहीं हो सकती। जाम भादिको शरीरगत मानने पर यह बम हो सकता है कि-"जैसे पकनकि को मान्य व्यसि के शरीर में रहने वाले रूप आदि का बाजुभदि प्रत्यक्ष होता है। इसी प्रकार उसमें खाने पाले कान आदि का भी चाक्षुषाविपक्ष कोमा चाहिये, क्यों किसामादि शरीर का धर्म होने पर कामादि के समान मानमाधि के साथ भी बच. भावि संयुक्तासमवायसम्मिको सम्भव है"-किन्तु इस प्रश्न का कोई महरम नहीं है, घोषित सफा सीधा की उत्तर या दिया जा सकता है कि समाधि के पाशुपादि. मरपक्ष को रोकने लिये जो उपाप किया जायगा-उसी से भान आदि के भी चाभु. पाविप्रत्यक्ष का परिवारहो जायगा और वह उपाय यही है कि रुप तथा सूचके साथ रहने वाले अन्य गुणों में पक जाति मानकर विषयतासम्बन्ध से क्षुषप्रत्यक्ष के प्रति रुपान्यतजातिमत् को तादाम्यसम्बन्ध से प्रतिबन्धक मान लिया प्राय, सी प्रकार विषयतासम्बन्ध से स्पाशेजप्रत्यक्ष के प्रति भी स्पान्यतस्मातिमत् को तारात्म्य सम्बम्म से प्रतिपापक मान लिया जाय । पेसा प्रतिवाय-प्रतिवन्धकमाय माम लेने पर हाम आदि के पानुषादिसम्यक्ष की भारमित नहीं होगी. क्यो कि उक्त आनि के सामावि में भी राने के कारण सानावि भी रूपाम्पसरातिमत हो जायगा 1 अतः उसमतिबारक पश उसके चाक्षुषामित्यक्ष की आपत्ति न हो सकेगी। भगर यह काकी आय कि-"परौर को ज्ञानाहि का भाश्रय मारने पर पायापस्था के शरीर का युवावस्था में अभाव हो जाने से बाल्यावस्था में अनुभूत विषय का युषाषस्था में, पर्ष युवावस्था के शरीर का जावस्था मै अभाव हो जाने से युवापस्था के अनुभूत विषय का वृयावस्था में स्मरण म हो सकेगा"-सो यह शका भी सचित नहीं है, क्योंकि से पूर्व घर का नाश होने के पश्चात् उम्पन्न होने वाले सर घर में पूर्व प्रर के गुण कारणमुणपक्रम से संकारत होते हैं, असो प्रकार पूर्व शारीर के मी गुण पूर्वशरीर के नाश के पाय उसके प्रयषों से उत्पन्न होने वाले नपेहरीर में संकात हो सकते हैं, मतः पूर्वधरोरगत संस्कार के उपरशरीर में मा जाने से पूर्व शरीर से अनुभूत विषय का उत्तरशरीर बाग स्मरण होने में कोई बाधा नहीं हो सकती । इस कल्पना में मवयवगतमामाविको अवधिगतहानादि के प्रति
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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