SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७४ शास्त्रपातासमुन्वय स्तनक १t० ६४ . परात्मनोऽपि योग्यत्यान् स्वात्मन इन प्रत्यक्षतासमः, तत्तदात्मभानसे तत्वदात्मत्वेन हेनुस्वात् । परेषा तु सत्तदात्मप्रत्यक्षबावचिन्न प्रति देतुःचे विनिगमनाविहः । किञ्च, एवं संयोपस्य पृथर प्रन्यासतित्वाऽकल्पने लाघवम् । न व ग्यणुकपरमाणुरूपाद्यप्रत्यक्षवाय चक्षुःसंयुकमाभूसलपरत्ममवायवादिना प्रत्या सत्तित्वे पुटिनहाय संयोगस्य पृथक् प्रल्पाससित्वकल्पनमावश्यकमिप्ति वायम्; इव्यवत्समवे+प्रत्यो उम्भूतरूपमाहवयाः समयारसामानाधिकरण्याभ्यां स्वामध्येण देवाचे दोपाऽभावात् । अपि च एवमुद्भूतरूपकार्यतायोइक द्रनपग्रत्यक्षत्वमेक्र. नत्वात्मेत्यपि तत्र निवियत इति प्लाधाम"लालः ॥ तत्रोक्यतं . कारण मानने से यद्यपि गौरव है, नाति फलमुगल अर्थात् फलानर उपस्थित होने से गौरय दोषरूप नहीं है । अथषा यह भी कहा ा माता कि अययधी का अत्रयों से पृथक अस्तित्व की नहीं है। क्योंकि अधययों के विजातीयसंयोग से भवयषी का सारा ने मार्ग: लमसिन ही माना है। इस पक्ष में अचयनों के पूर्ववर्ती विजातीयमयोग का नाश हो जाने पर अवषयों का नया मित्रा सीयस योग शान प्राता है, और इस प्रयोग से विशिष्टषणसमुदाय की नया शरीर कहलाता है। इस पारी में में सभी छाते हैं जो पूर्व शरीर में थे, अतः पूर्व सरीरस्थ अणुषों में उत्पन्न संस्कार को नये शरीर में भी विद्यमान रहने से पूर्व शरीर से अनुभूत विषष का नये शरीर से स्मरण दाने में काई बाधा नहीं हो सकता । शरीरात्मबादी को आत्ममानसमायक्ष की भापति का पदार। छका हो सकती है कि-"यति शरीर ही मारमा हि न तो पकव्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के शारीर का जैसे बाभुषप्रायन होता है उसी प्रकार उसे उसका मानसपा पक्ष भी होना चाहिये । इस आपति को इष्टापति मान कर शिरोधार्य नहीं किया जा सकता. क्योंकि आत्मा का मामसप्रत्यश्न उसके मानादि गुणों के साथ ही होता है, अतः पकव्यक्ति को हमरे यक्ति के शरीर का आत्मा के रूप में यदि मानसपयश होगा तो उस दूसरे शरीर के सामादिगुणों का भो मानसप्रत्यक्ष लाथ माथ मानना पडेगा को इट महो "-रस वाश उमार पह है कि-नस पारमा के मानसमस्या में ननद प्रारमा मादाम्य सम्बन्ध मे कारण, मतः एक व्यक्ति को अन्य प्रारमा के मानसप्रन्या को आपात नहीं हो सकती । मो लोग आग्मा को शरीर मे भिन्न मामने हैं उनके मन में एक व्यक्ति को अन्य व्यक्ति के मामा के ग्रात्यक्षापसि को रोकने के लिये नादास्मविषयकमात्या के प्रति ननामा को कारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि पेला मानने में विनिगममा विरह होगा । जैसे इस मत में उक्त भापति का परिद्वार मध्य प्रकार के कार्यकारण भाष द्वारा भी हो सकता है, उदाहरणार्थ- अपकवकनासम्बन्ध से तत्तमात्मविषयकप्रत्यक्ष के प्रति तसस् शरीर. तावास्यसम्पम्य ले कारण है. एथै समवायसम्बन्ध में सवारमविषयकप्रत्यक्ष के प्रति विप्रातीयत तम्मनासयोग समयाय सम्बना से कारण, ऐसे अमेक में से एक ही कार्यकारणभाव मानने में कोई प्रबल मुक्ति नहीं है. मतः
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy