SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मा० क० टीका थ. वि० मुख- मृतदेद्देच चैतन्यमुपलभ्येत सर्वथा । धर्मादिभाषेन तन धर्मादि नान्यथा ||१५|| नं. मृतदेहे च सर्वथा - जोवच्छरीरकालीनप्रकारेण, देहधर्मादिभावेन देहधर्मत्व देहकार्यत्वाभ्यां चैतन्यमुपलभ्येत देहत्य देहरूपादिवदिति भावः अन्यथा योग्यानुपलमेन तदभाव एव स्यात् । तथा च तत् चैतन्यं समति तद्धर्मभूतं सत्कार्यभूत च न तद्भावेऽपि तदभावसार घटत्वष्टरूपादिवदिति भावः ॥६५॥ विनिगमनादि दोने से इन सभी कार्यकारणस्यों को स्वीकार करना पड़ेगा, जिस में गौरव का होना अनिवार्य है । , 1 १७५ , [ श्रीरामवादीको प्रत्यासत्ति में लाघव ] शरीरको मारमा मानने में एक यह भी गुण है कि संयोग को प्रत्यासति प्रत्यक्षमनिकर्ष मानने की आवश्यकता न होने से लाभ होता है क्योंकि संयुक्तसमवायसम्म से ही शरीररूपा का प्रत्यक्ष दो दिश से मिम्न नित्यभामा माना जायेगा तो उसमें संयुक्तसमवायसम हो सकने से संयोग का सन्निकर्ष मान कर मनःसंयोग से उसके घर की उत्पत्ति करनी होगी। यदि यह कहे कि "यक परमाणु पर्व वक्षु आदि के रूप के चार प्रत्यक्ष के परिहारार्थ मधुःसंयुक्तसमवाय को अक्षु संयुक्त रूपवत्समवायश्वेनैव प्रत्यक्ष के प्रति हेतु मानना होगा, ताकि व्यक और परमायु में महस्य एवं अनु मावि में रूप न होने से उनके रूप के साथ त्र का वाछित सम्निकर्ष न हो सके, तो फिर इस स्थिति में असरेणु का प्रत्यक्ष तो इस सर्विसेना सकेगा क्यों कि शुक के महत्वण्छोन होने मे श्रसरेणु वधु/संयुक्तमहासमवेत नहीं है, अन रेणु के प्रत्यक्ष को उपर्शन के लिये संयोग को स्वतन्त्र सन्निकर्ष मानना अनिवार्य है" तो यह कहना ठीक नहीं है क्यूकि त्य के प्रत्यक्ष में महत्व उद्भूतप कोलवा से स्वतन्त्ररूप से कारण मान लेने पर धनुःसंयुक्तसमवाय को युक्तसमवायन भी कारण मानने में परमाणु बक्षु आदि के रूप के प्रत्यक्ष की आपत्ति हो तो अतः रेणु का संयुक्तसमवाय सम्किर्ष से हो प्रत्यक्ष सम्भय होने से योग का सम्मिक मानना आवश्यक नहीं है। शरीर को आत्मा मानने में एक मोर भी गुण यह है कि इस मन में भूतरूपकार्यतावच्छेत्र केवल द्रव्यमन्यथ भी हो सकता है, दूव्य में आरमेतरत्वविशेषण लगा कर आमेसर प्रत्यय की कार्यतावच्छेदक मानने का आवश्यकता नहीं है: क्योंकि इस मन में आत्मा शरीररूप होने से उत्भूतरूप का आश्रय है दो मतः प्रत्यविषप्रत्यक्षमात्र के सचिव को कारण मानने में कोई दोष नहीं है, इस प्रकार के कार्य में वय है ॥ [मध्यनास्तिक्रम संपूर्ण ] [नव्यनःस्तिक के मत का परिहार ] प्रस्तुत ( ६५ वीं) कारिका में देवात्मवाद के समर्थन में नवीन नास्तिकों द्वारा प्रकट किये गये विचार का खण्डन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy