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________________ स्या का टीका पहि. विक कुतः इत्याहमुलम् --अदृष्टाकाशकाला दिमाममीनः समुहवात् । तथैव लोकसवित्तेरन्यथा तदभावतः ।।६३॥ अष्टाऽऽकाशकालादिसामग्रीता, 'सभुरवात' तदुत्पादाभ्युपगमासू. 'तथा लोकेन न पतीयते' इत्यत्राह-तथैव उक्तवदेव, लोकसंवित अयुत्पन्नलोकप्रतीनेः । अन्यथा एकमनभ्युपगमे तदभावतो-विचित्रताऽभावप्रसारत् ॥६॥ सबैली फैस्तथा न अनीयते इति थे ! अाह मूलम् -न बेड लौकिको मार्गः स्थितोऽस्माभिविनार्यते । किनवयं ग्रुध्यते क्षेति त्वनीतो चोक्तपन्न सः ।।५|| न येह तथपरीक्षायो, लौकिकः - अव्युत्पन्नालोकमानाश्रितः, गरमतो मार्ग : "किमय मित्यं स्थितः' ? इति संशयोपास्टोऽर्थ अस्माभिविनायते-गतानुगतिकतया तहदेव सन्दियते किन्तु 'भयभित्यम्भूतोऽर्थ क्व युज्यने' ? इत्यादिजिज्ञासाक्रमेण परोक्ष्याते. परी. क्ष्यमाणधोक्तबदउक्तरीत्या स्वन्नीनो स्वदभ्युपगम स यथास्थितोऽर्थो न घटने ||६४॥ लोकसित है, उसमें कोई विवाद नहीं है. क्योंकि जो भई प्रत्यक्षसिद्ध है इसका अस्थी. कार शमय है, किन्तु कहना केवल इतना ही है कि पाषाण और घट की परमार पिकापाता भी भूतमाषजन्य नहीं है, इस विलक्षणता का मीमूल कुछ और दो २॥ - [घट और पाषाण की विलक्षणता का निमित] ६३वी कारिका में पाषाण और घर की विलक्षणता के उन कारपों को बताया गया को उनके घटक भूतों से भिन्न है। 'पाषाण, घट मादि की परसार पिलनणता अध, आकाश, काल आदि कारणसम् पाय से सम्पावित होती है। विक्षयर्ग को भाग्य होने के कारण इस तथ्य का मस्यीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसका अस्वीकार कर देने पर भस्य प्रकार से उकपिलसणता की उपपत्ति नहीं की जा सकती १६३॥ ३४ वीं कारिका में यह बात बतायी गयी है कि किसी तथ्य के प्ररियायम में भत्यात पामर जनों की प्रतीति का माश्रय लेना भाषश्यकही होता । कारिका..... तरवपरीक्षा करते समय पामर जो की नीति के आधार पर विचार नहीं किया माता, क्योंकि सामान्यज्ञान को तो अर्थ के विषय में पेया संवेश हो सकता है कि क्या ममुक पदार्थ पेसा ही है। या भग्य प्रकार का है अतः यदि सामान्यशन की प्रनीति का साधार किया जायगा ती तत्वपरीक्षक को भी गतानुगतिक होकर उनी संदेश कानु. पतन करना होगा, पर इससे सब का निर्धारण तो नहीं हो सकता, इसलिये तथपरीक्षक को किसी पातु की वास्तविकता का विचार करते समय उस वस्तु के बारे में विशेष का हो अवधारण है उसे भाधार मान कर यह परोना करनी होती है कि विहानों द्वारा स्वीकृत या वस्तुस्थिति से अपपम हो सकती है। और इस रधि से अप देह-पट
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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