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________________ ...२६८ शास्त्रपातासमुपप-तक १ "लोक ४४ यस “वहिव्याप्यधूमवत्पर्वतवान् देश इति परामर्शत 'पर्वतो वद्धिमान्' इत्यनुकारण मानने पर 'सव रजतम् , पम्' इस शान से भी इद पवाय में रमतार्थी की प्रकृति की आपत्ति होगी, क्योंकि इस शान में तत्पवार्थ में रजतत्व प्रकार मोर व्यवश में वं मुचविशेष्य है, अतः यह मान परतापनवकमकारक है और मुक्या विशेष्यतासम्बन्ध से विपदार्थ में विद्यमान है । 'सद् रजतम्, गवं द्रष्पम् समान से इदंपदार्थ में रजतार्थी की प्रवृत्ति के परिद्वारा यह +1 आ मकता है कि-प्रति के प्रति सभी पतायछेदकप्रकारकमान कारा नहीं होता किन्तु जिस कान में प्रवतावटसप्रकारकत्व प्राप्तविशेष्यकरष से भय होताचही जान प्रशि का कारण होता है, उक्त माम में में रजसत्व प्रकार न होने से विशेष्यकरपाषष्ठले देश रजसत्यप्रकारकस्य नहीं है अर्थात रजतत्यप्रकारकत्व पर विशेष्यकन्य से सघन नही है, अतः उस शान से इन में रजतार्थी की प्रवृति को आपत्ति नहीं हो सकती". किन्तु यह कहना उचित नहीं हो सकता क्योंकि जिस शाम में प्रतापल्लेदवाप्रकारकत्व प्रतिविषयविषयकस्य से अबकच । उसी की प्रवृति का कारण पर असे 'तर रजतम्। ६ म्यम्' इस शान से प्रवृत्ति की मात्ति नहीं होता, उसी प्रकार जिस शान में पताचस्छेदकविशेष्यकस्व प्रवृत्तिविषयमकारकाय से भवष्य हो षही पान प्रवास का कारण होता है या मान लेने से 'तत्र रजतस्यम् , मत्र इम्पत्यम्' इस नाम से भी प्रसि को आपत्ति न होगी क्योंकि इस शान में नम्पवा के विशेष्यरूप में रमप्तत्व का मान लोता हे दर पदार्थ के विशेष्यरूप में भान हो बाता. भत्ता इस काम में रजतत्वविशेष्यकत्व के दिप्रकारकत्व से अवन्य महामे के कारण इससे पक्ष में रहताधों की प्रवृत्ति की सापशि नहीं हो सकती। 'वं शतम्' इस मान को पदविशेष्यकत्वापळे गरजसत्यप्रकारकरररूप से भीर 'अत्र रजतषम् स सान को रमतर्घायशेयकस्यापदकस्वरूप से प्रवृति का अलग अलग कारण मानमे पर पक ज्ञान का-दुसरे शान से होनेवाली मति के प्रति व्यभिचार होगा। सत्सद शाम के व्यवहित उत्तर में होने वाली प्रवृत्ति के प्रति तसान का कारण मान कर इस व्यभिचार का परिदार करने पर दो गुयतर कार्यकारणभाष स्थीकार करने होंगे मतः उक्त दोनो प्रकार के क्षानों को इतावदक धर्म और प्रवृत्ति विषय के परस्पर सम्बन्ध को प्राण करने घाले बान के कप में ही कारण मानमा इचित है। कान को चमकाश मानने पर इव में रजतत्व का शान 'वं मतम्' पेसा न होकर 'इदं रजत आमामि स प्रकार का होगा, मतः घद प्रवृत्ति के मन में अनुपयोगी मश का प्राहक होने पर भी इष्टतावच्छेदक रजतत्व और पति विषय वं के परस्पर सम्बाघ का माइक होने से निर्वाधरूप से प्रवृति का उत्पाद हो सकेगा। इस लिये जान को प्रकाश मानने पर उससे प्रवृत्ति की अनुपपत्ति का प्रसंग होने से शाम को स्वप्रकाश मामले में कोई बाधा नहा प्रतीत होती। स्वाकार ज्ञानवाद में गौरव भापत्ति का परिहार] खाम को स्वप्रकाश मानने पर यर अंका हो सकती है कि-'पहिव्यायधृमयान पर्वतः' इस प्रकार के परामर्श से ही वद्धिमान इस अनुमति का जन्म होता है, 'पविण्या
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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