SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - न कि विभिन्न सिद्धान्तों के दोष-गुण का विवेचन किये बिना ही किसी एक सिद्धान्त का निरूपण कर देना, जो कि भाजकल के तुलनात्मकअध्येता वर्ग की लाक्षणिकता हैं । एक विद्वान् का कहना है कि-“उपाध्याय श्री यशोविजयजी थे तो पक्के जैन और श्वेताम्बर, फिर भी विद्याविषयक उनकी दृष्टि इतनी विशाल थी कि वह अपने सम्प्रदाय मात्र में समा न सकी, अत एव उन्हों ने पातञ्जल योगसूत्र के उपर भी लिखा" यह विचारणीय है कि लेखक ने विद्याविषयक दृष्टि का सम्प्रदाय में समावेश न होना और योगसूत्र पर लिखना इन दोगों में हेतुहेमरी ला किस उट कर लो है ! यह भी विचारणीय है कि विद्याविषयकदृष्टि संप्रदायमात्र में न समा सकी' इसका क्या अर्थ है !-'दृष्टि के समक्ष केवल स्वसम्प्रदाय मात्र का न रहना किन्तु इतर सम्प्रदायो का भी दृष्टि के समक्ष उपस्थित होना' यदि यह उसका अर्थ हो तो इससे श्रीउपाध्यायजी को कौन सी विशेषता प्रकट हुई ? यह तो जैन-जैनेतर सभी विद्वानों के लिये समान है । योगसूत्र के कतिपय सूत्रो पर ही वृत्ति लिखने के पीछे श्री उपाध्यायजी का जो उद्देश्य है वह योगसूत्र के प्रथमसुत्र की वृत्ति में बताये गये परिष्कार से ही पाठको को भलीभांति ज्ञात हो जाता है, जो साधारणतया यह है कि योगसूत्र में जैनदर्शन संवादो जितना अंश है उस पर जैन दर्शन की दृष्टि से प्रकाश डालना । अतः अपने सम्प्रदायमात्र में विद्याविषयकदृष्टि के असमावेश को योगसूत्र पर वृत्ति लिखने में कारण या प्रयोजक बताना एक प्रकार की अज्ञानता ही हैं। जैनदर्शनालङ्कार आचार्य श्री हरिभद्र सूरिजी तथा श्री यशोविजय उपाध्यायजी के बारे में आधुनिक विद्वानो के सारहीन-असमत कथनो को अन्य लेखको द्वारा पुनरावृत्ति न होकेवल इसी दृष्टि से उपर्युक्तरूप में थोड़ी सी चर्चा को गई है। भाशा है लेखकगण हमारे इसो भाशयको ग्रहण करेंगे, यदि किसी को इस वक्तव्य से जिनशासन के प्रति किञ्चित् भी वैपरीत्य का आभास हो और वास्तव में यदि ऐसा कोई अनवधान हो गया हो तो उसके लिये हमें पर्याप्त मनस्ताप हैं, और यदि उपर्युक्त चनों से निनशासन तथा उसके विद्वानो, पूर्वाचायौं, मुनिजनों तथा उनकी शास्त्रीय कृतियों के संबंध में आधुनिक लेखकों को धारणा और चर्चा की प्रवृत्ति परिष्कृत हो सकी तोहम जिनशासन को यत्किचित् सेवा कर सके उस का आत्मिक सन्तोष होगा। सं. २०३२ भा. भु. ११ मुनि जयमुन्दरविजय अमलनेर -x-x
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy