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हरिभद्रसूरि-चिरचित महान् ग्रन्थराशि को देखने से भी इस कथन को पुष्टि होती है और साथ ही विक्रम के बाद साधिक ५०० वर्ष पश्चात् पूर्वश्रुत का विच्छेद होने से आचार्यदेव श्रीहरिभद्रसुरिजीके उपर्युक्त समय का समर्थन होता है ।।
[२]- आधुनिक विद्वानों का एक मत यह है कि श्रीहरिभद्रर्ति का जीवनकाल वि. सं. ७५७से ८२७ के बीच में था। जिनविजय नामके गृहस्थ ने 'जैन साहित्य संशोधक' के पहले मई में 'हरिभद्रसूरि का समय निर्णय' शीर्षक से एक विस्तृतनिबन्ध में इस मत को प्रमाणित करने का प्रयत्न किया हैं-इस का सांराश यह है कि श्रीहरिभद्रसूरि ने अपने प्रन्थों में व्याकरणवेत्ता भर्तृहरि, बौद्धाचार्य धर्म कोर्ति और मोमाप्तक कुमारिल आदि अनेक ग्रन्थकासे का नामशः उल्लेख किया है। जैसे अनेकान्तजयपताका के चतुर्थ अधिकार की स्वोपज्ञ रीकामें 'शब्दार्थतत्वविद् भर्तृहरिः' तथा 'पूर्वानायः धर्मपाल-धर्म कीादिभिः' इस प्रकार उल्लेख किया है । शास्त्रवात्ता-समुच्चय के लोकांक २९६ को स्वोपज्ञ टीकामे 'सूक्ष्मबुद्धिना शान्तरक्षितेन' तथा लोकाङ्क ८९ में आई च कुमारिलादिः' ऐसा कहा गया है।
इन चार आचार्यों का समय इस प्रकार प्रसिद्ध है-ई. स. की ७ वीं शताब्दो में भारतप्रवासी चीनदेशीय इसिंग ने ७०० लोकमित 'वाक्यपदीय' ग्रन्थ की रचना करने बाले भर्तृहरि की वि. सं. ७०७ में मृत्यु होने की बात कही है। कुमारिल का समय विक्रम की ८ वी शताब्दी का उत्तरार्ध बताया जाता है । धर्मकीर्ति का भी नामोल्लेख इसिगने किया है इससे जिनविजय ने उसका समय इ. स. ६३५-६५० के बीच मान लिया है। 'शास्त्रवार्ता' में जिस शान्तरक्षित का नामोल्लेख है यदि वह ही तत्वसंग्रह का रचयिता हो तो उसका समय विनयतोप भट्टाचार्य के अनुसार इ. स. ७०५ से ७६२ इ. स. के बीच है। यहाँ एक बात पर ध्यान देने योग्य है कि तत्वसंग्रह के टीकाकार कमलशील ने परिक्षका तथा चोरतमाचार्यसूरिपादैः। ऐसा कह कर जिस सरि का उल्लेख किया है उस सरि को विनयतोषभाचार्य ने तत्वसंग्रह के इंगलिश फोरवर्ड में हरिभद्रसूरि ही बताया है। पीटरसन के रीपोर्ट के 'पञ्चसए' ऐसा पाट वाली गाथा के अधार पर उन्होंने हरिभद्रसरिजी का स्वर्गवास वि. सं. ५३५ में माना है । किन्तु श्रीहरिभद्रसरिजी ने ही स्वयं शान्तरक्षित का नामोल्लेख किया हैं इस लिये लगता है कि तत्वसंग्रह पञ्जिका में उल्लिखित अचार्यसूरि हरिभद्रसूरि न होकर अन्य होंगे ।
इन ४ प्राचीन विद्वानों का समय विक्रमीय ८ वी शताब्दी होने से जिनविजय ने श्री हरिभद्रसूरि जी को ८ वी शताब्दी के विद्वान माना है और ८ वी शताब्दी के उत्तरार्ध में विशेषत: उनका अस्तित्व सिद्ध करने के लिए. 'कुवलयमाला' के प्रशस्तिपथ की साधी दी है वह पच इस प्रकार है