________________
"आयरियवीरभदो महावरों कापरुक्खोव्य ॥ सो सिद्धन्तेण गुरु जुत्तिमत्येईि जस्स हरिभयो ।
बहुगंथसवित्थरपस्थारियपयडसम्वत्थो । . इस पद्य का जिनविजय ने यह अर्थ किया है 'आचार्य वोरभद तो जिसके सिद्धान्तों को पढ़ाने वाले गुरु है और जिन्हों ने अनेक ग्रन्थों की रचना कर समस्त श्रुत का सर्वार्थ प्रकट किया है वे आचार्य हरिभद्र जिसके प्रमाण और न्यायशान के पढाने वाले गुरु हैं।' कुवलयमाला की रचना यतः वि. सं. ८३५ में होना निश्चित है इसलिए इस पद्य के अधार पर जिनविजय ने श्री हरिभद्रसूरिजी और कुवलयमाला का पूर्वापरभाव निश्चित कर के श्री हरिभद्रसूरजी को ८ वी शताब्दी के उत्तरार्ध और नवी शताब्दी के मध्य में माना है।
जिनविजय की भ्रान्ति श्री हरिभदसूरिजा का समय अन्यप्रमागों से कुछ भी निश्चित हो किन्तु कुवलयमाला के उस पद्य के आधार पर तो जिनविजय ने जो निर्णय किया है यह अवश्य भ्रमपूर्ण प्रतीत होता है-इसका कारण यह है कि जिनविजय को उस पथ का अर्थ समझने में गलती हुई है क्योंकि उन्होंने 'सो सिद्धन्तेण गुरु' यहाँ तत्पद के प्रतिनिधि 'सो' पद से वीरभद्र का ग्रहण किया है और उसो पद्य के अगले पाद में 'जस्स' पद से उन्हों ने कुवलयमालाकार का ग्रहण कर हरिभद्र यूरिनी को कुछयमालाकार का युक्तिशास्त्रगुरु बताया है । अब व्याकरण का यह नियम प्रायः सर्वविदित है कि जिस पद्य में तत्पदसे जिसका ग्रहण होता है उस पध में यत्पद से भी उसो का प्रण होता है क्योंकि यत् और तत् पद परस्पर में नित्य सारांश होते हैं। इस नियम के अनुसार 'सो (सः) पद से यदि आचार्य वीरभद्र को लिया जायगा तो 'जस्म (यस्य) पर से भी (वीरभहस्स) वीरभद्र को ही लेना होगा और ऐसा करने से पद्य का अर्थ यह होगा कि 'तर्कशास्त्रों के विषयमें आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी भाचार्य विरभद्र के गुरु थे' न कि जैसा जिनविजय ने माना है कि 'श्री हरिभद्रसूरि कुवलयमालाकार के गुरु थे । इस प्रकार उक्त पद्य के अनुसार भाचार्य वीरभद्र कुवलयमालाकार के सिद्धान्त गुरु और भाचार्य हरिभदरि आचार्य वीरभद्र के तर्कशाबगुरु सिद्ध होते है। इस विधान में कुवलयमालाकार के ही अन्य पद्य को साक्षिरूप में प्रस्तुत किया जा सकता है-जैसे--
"जो इच्छइ भवनिरहं भवविरई को न वेदए सुजणो । समय सयसत्थगुरुणो समरभियंका कहा जरस ॥"