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________________ २१. इस पथ में कुललयमालाकार ने श्रीहरिभद्रसूरिजी की स्मरण तो किया है किन्तु उनकी अपना तर्कशास्त्रगुरु बताने की कोई सूचना नहीं दी है | यदि श्री हरिमदपुरि कुवलयमालाकार के तर्कशास्त्रगुरु होते तो उन्हों ने उनका उसरूपमें अवस्य स्मरण किया होता, किन्तु उन्हों ने ऐसा नहीं किया इससे सिद्ध होता है कि श्री हरिभदसूरिजी कुवलयमालाकार श्री उद्योतनसूरिजी के साक्षात् तर्कशाखगुरु नहीं थे । निष्कर्ष यह है कि जिनविजय के प्रयास के अनुसार श्री हरिभद्रसूरि यदि ८ वीं शताब्दी के विद्वान् सिद्ध होते हो तो भो जिन जिन ग्रन्थकारों का नामोल्लेख श्री हरिभद्रसूरि ने अपने ग्रन्थो में किया है उन सभी के उनका पूर्ववत्त होने से उन्हें ८ वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में विद्यमान मानना हो उचित होगा जिससे कुवलयमालाकार के सिद्धान्तगुरु वीरभद्र के तर्कशास्त्रगुरु से उनके श्री हरिभद्रसूरि का समय कमसे कम ५० से ७५ वर्ष तक पूर्व युक्तियुक्त हो सके ! ३ ) - तृतीयमत जो हर्मन जेकोबी को अधिक अभिमत है - श्री हरिभद्रसूरि उपमिलिभवप्रपचकथाकार श्री सिद्धार्षि के गुरु थे । इस बात में 'उपमिति०' के ये प्रशस्तिपद्य प्रमाणरूप से प्रस्तुत किये जाते है आचार्यहर मे धर्मोकरो गुरुः । प्रस्तावे भावतो हन्त स एवाये निवेदितः ॥१॥ अनागतं परिज्ञाय चैत्यवन्दनसंश्रया । मदर्थैव कृता येन वृत्तिर्ललित विस्तरा ||२||" इन दो पद्यो से यह तो स्पष्ट है कि इस में उल्लिखित हरिभद्रसूरिजी वही व्यक्ति है जिनके समय का विचार किया जा रहा है । किन्तु उपमितिकार का समय 'उपमिति ० के निम्नोक्त पद्यसे विक्रम की दशवीं शताब्दी में सिद्ध होता है जैसे " संवत्सरशतनव के द्विषष्टिसहितेऽतिलखिते चास्याः 1 ज्येष्ठे सिपम्यां पुनर्व सौ गुरुदिने समाप्तिरभूत् ||" इस लोक से ज्ञात होता है कि 'उपमिति' ० की समाप्ति दि० सं० ९६२ में हुई थी। जेकोबी के मतानुसार यदि श्री हरिभद्रसूरि जी को श्री सिद्धषि के साक्षात् गुरु माना जाय तो अत्यन्त प्रामाणिक शक संवत् ६९९ ( दि० सं० ८३५ ) में कुवळयमाला की समाप्ति करने वाके उद्योतनसूरि द्वारा किया गया श्री हरिभद्रसूरि का नामोल्लेख असंगत हो जाता है और ५८५ में श्री हरिभद्रसूरि का स्वर्गवास के मत का भी विरोध होता है, इसलिए दर्मन जैकोबी के इस तृतीयमत को कोई भी आधुनिक विद्वान् नहीं मानते । श्री सिद्धर्षि ने अपने गुरु रूप में श्री हरिभद्रसूरि जा का जो स्मरण किया है वह इसलिए कि उन्हें श्री हरिभद्रसूरिबिरचित 'तिविस्तारा' वृत्ति से सदोष हुआ था ।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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