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निस्कर्ष
उपर्युक्त तीन मतों के सम्बन्ध में निष्पक्ष विचार करने से यह तथ्य प्रकट होता है कि उक्त मतो में प्रथम मत जो कि ५८५ वि. सं. के पक्ष में है, श्रेष्ठ और मधिक विश्वसनीय है। प्राचीन अनेक ग्रन्थकारों ने श्री हरिभद्रसूरि को ५८५ वि० सं० में बताया है। इतना ही नहीं, किन्तु श्री हरिभद्रसूरि महाराज ने स्वयं भी अपने समय का उल्लेख संवत्-तिथि-वार-माप्त और नक्षत्र के साथ लघु क्षेत्रसमास की वृत्ति में किया है जिसवृत्तिके ताडपत्रीय जेसलमेर की प्रत का परिचय मु. श्री पुण्यविजय सम्पादित 'जेसलमेरकलेक्शन' पृष्ठ ६८ में इस प्रकार प्राप्य है-'क्रमांक १९६- जम्बूद्विपक्षेत्रसमास वृत्ति-पत्र २६-भाषाः प्राकृत-संस्कृत-कर्ताः हरिभद्र आचार्य, ले० सं० अनुमानतः १४ वीं शताब्दी।' इस प्रति के अन्त में इस प्रकार का उल्लेख मिलता है --
इति क्षेत्रसमासवृत्ति: समाप्ता । विरचिता श्री हरिभदाचार्यः ॥छ। लघुक्षेत्रसमासस्य वृत्तिरेषा समासतः । रचिताऽबुधबोधार्थ श्री हरिभदसूरिभिः ॥१॥ पञ्चाशितिकवर्षे विक्रमतो बज्रति शुक्लपञ्चम्याम् । शुक्रस्य शुक्रवारे शस्ये पुष्ये च नक्षत्रे ।।२।।
ठीक इसी प्रकार का उल्लेख अहम्मदाबाद-संवेगी उपाश्रय के हस्तलिखित भांडार की एक सम्भवतः १५ वा शताब्दी में लिखी हुयी क्षेत्रसमास की कागज की प्रति में उपलब्ध हो
दूसरी गाया में स्पष्टशब्दों में श्री हरिभद्ररिजी ने लघुक्षेत्र समासवृत्ति का रचना काल वि.सं. (५)८५, पुष्य नक्षत्र शुक(ज्येष्ठ) मास-शुक्रवार-शुक्लपंचमी बताया है। यद्यपि यहाँ वि.स. ८५ का उल्लेख हैं सथापि जिन वार-तिथि–मास-नक्षत्र का सह उल्लेख है उनके साथ वि.सं. ५८५ का ही मेल बैठता है । अहमदाबाद-वेघशाला के प्राचीन ज्योतिषविभाग के अध्यक्ष श्री हिम्मतराम जानी ने ज्योतिष और गणित के आधार पर जांच कर के यह बताया है कि उपर्युक गाथा में जिन वार तिथि इत्यादि का ऊलेख है वह वि.स. ५८५ के अनुसार बिलकुल ठीक है-ज्योतिषशास्त्र के गणितानुसार प्रामाणिक है । उन्होंने सारा गणित कर के उक्त बात बतायी है किन्तु यहाँ भावश्यक न होने से उस विस्तारापादक प्रस्तुति का परित्याग किया गया है।
इस प्रकार श्री हरिभद्रसूरि महाराज ने स्वयं ही अपने समय की अत्यन्त प्रामाणिक सुचना दे रखी है तब उससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है जो श्री हरिभद्रसूरि के इस समय की सिद्धि में बाधा डाल सके ! शंका हो सकती है कि-" यह गाथा किसी अन्य ने