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प्रक्षिप्त की होगो"-किन्तु वह ठोक नहीं, क्योति प्रक्षेप करने वाला केवल संवत् का उल्लेख कर सकता है किन्तु उसके साथ प्रामाणिक वार-तिथि आदि का उल्लेख नहीं कर सकता ।
और यदि इतने प्रामाणिक उल्लेख को भी प्रक्षिप्त कहा जायगा तब तो कुवलयमाला आदि में प्राप्य उल्लेखो के बारे में भी यह कैसे कहा जा सकेगा कि यह उल्लेख प्रक्षिप्त नहीं किन्तु प्रामाणिक है । हो, यदि धर्मकीर्ति आदि का समय इस समय में बाधा कर रहा हो तो उचित यह है कि उनके समय के निर्णय को ही पुन: जांच की जाय, यतः धर्मकीर्ति आदि के समय का बोधक नो इसिग आदि का लेख है उससे केवल संवत्सर की हो सूचना मिलती है-जब कि श्री हरिभद्रसूरिजी के इस उल्लेख से तिथि आदि का भो बोध मिलता है । इस लिये श्री हरिभद्रसूरि के समयोल्लेख के इत्सिग आदि के समयोल्लेख से अधिकपुष्ट एवं बलवान होने से धर्मकीर्ति आदि के समयोल्डेख के आधार पर श्रीहरिभद्सरिजी को विक्रम की छट्टी शताब्दी से खींच कर ८वी शताब्दी के उत्तरार्ध में ले जाने की अपेक्षा उचित यह है कि श्री हरिभद्रसूरिजी के इस अत्यन्त प्रामाणिक समय उल्लेख के बल से धर्मक्रीति मादि को ही बढी शताब्दो के पूर्वार्ध या उत्तरार्घ में जाया जाय । अतः श्रीहरिभद्रसूरि को कुवलय. मालाकार के साक्षात् तर्कशास्त्रगुरु मान कर उनको ८वीं शताब्दी में अवस्थित मानना अत्यन्त भ्रमपूर्ण है - इस बात की चर्चा पहले ही की जा चुकी है। कुवलयमालाकार का उल्लेख श्री हरिभद्र सूरिजी को विक्रमीय छटो शताब्दी का विद्वान् मानने में तनिक भो बाधक नहीं हो सकता । श्री वीरभद्राचार्य कुवलयमालाकार के साक्षास् गुरु माना नाय तो भी 'युक्तिशालो द्वारा श्री वीरभद्राचार्य के गुरु श्री हरिभद्रसूरिजी है, इस उल्लेख का यह अर्थ करने में कोई बाधक नहीं है कि 'परम्परा से श्रीहरिभद्रसुरिजो प्रो वोरमद्राचार्य के विद्यागुरु थे। क्योंकि श्री हरिभद्रसूरे के ललितविस्तरा' शास्त्र से जैसे उअमितिकथाकार: श्री सिद्धर्षि प्रबुद्ध हुए थे उसी प्रकार श्रीहरिभद्र सूरि के तके ग्रन्थों से श्री वीरभद्राचार्य ने जैन-जनेतर तर्क सिद्धान्तों का पर्याप्त बोध प्राप्त किया होगा ।
सारांश यह है कि (१) पूर्वश्रुत के विच्छेदकाल के निकट के समय में विधमान होने से तथा विचारश्रेणिप्रकरण कार भादि अनेक प्राचीन ग्रन्धकारों का वि० सं० ५८५ बाला प्राचीन मत होने से तथा श्रीहरिभदसूरिजो ने स्वयं अपना काल लघुक्षेत्रसमासवृत्ति में बताया है इसलिये श्री हरिभद्ररि महाराज विक्रम को छटो शताब्दी में हुए यह सत्य निश्चित होता है।
(२) धर्मकिर्ति आदि विद्वानों का समय प्रमाणिक और निश्चित न होने से उपयुक्त मत में तनिक भी बाधक नहीं है ।