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५-स्याद्वादकल्पलता-व्याख्याकार श्रीमद् यशोविजय उपाध्याय आचार्य श्री हरिभद्रसुरि महाराज के बाद जैन परम्परा में अनेक मुनीश्वर हुए जिनमें सिद्धर्षिगणी-आचार्य मनिचन्द्र सुरि-आचार्य हेमचन्द्रसूरि-पा० गुणरत्नसूरि आदि विद्वान् प्रभावक आचार्यों का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन आचार्यों ने अनेक जैन तर्कशास्त्रग्रन्मो का प्रणयन कर जिनशासन के प्रकाश भरे प्रदीप को चिरकाल तक जाज्वल्यमान रखा ।
इसी रत्नप्रसू परम्परा में १७ वी शती में एक ऐसे पुरुषरत्न श्री यशोविनय महाराज का उद्गम हुआ जिनका चतुर्दिकप्रसरी बौद्धिक प्रकाश प्रन्यो' के रूप में आज भी मुमुक्षुजनों के लिए जैन शास्त्रों का रहस्य जानने का उत्तम साधन बना हुआ है। उनकी अनेकमुली प्रखर प्रतिभा ने श्रीहरिभद्रसूरिजी के ग्रन्थों का सलस्पर्शी मध्ययन कर जो नवनीत निकाल कर जिज्ञासुओं को प्रदान किया है उस के कारण जैन मुनिवर्ग में लघु हरिभद्र के उपनाम से उनकी प्रसिद्धि है । उन्होंने स्याद्वाद के बल से दुर्जय वदियों को पराजित करके जैनशासन और अनेकान्तवाद की जयपताका काशी के गगन में लहराई थी। उनके उस विजय से आश्चर्यमुग्ध हो काशी की विद्वन्मंडली ने उन्हें 'न्यायविशारद' चिरुदप्रदान किया था। नवीनन्यायशैली के प्रणेता 'तत्त्वचिन्तामणि' ग्रन्थकार ग?शोपाध्याय और उनके प्रसिद्ध टोकाकार रघुनाथ शिरोमणि के मन्तव्यों के सूक्ष्म समालोचन और खंडन भरे उनके अनेक तर्कप्रन्थों को देख कर मामा में भट्टाचार्य ने उन्हें 'न्यायाचार्य' को उपाधि प्रदान को थी ।
शास्त्रया -समुच्चय मूलगन्थ की रचना करने वाले आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिमहाराज ने स्वयं उस ग्रन्थ की गृहन्थियों को खोलने के लिये 'दिकादा' नामक एक व्यारव्याग्रन्थ की रचना की थी। किन्तु नाम अनुप्तार इस ग्रन्थ में श्लोक का अर्थ लगाने के लिये केवल दिशा. प्रदर्शनमात्र किया गया था जिससे उसके तात्पर्य तक पहुँचने के लिये मध्येतावर्ग को उसकी विशद व्याख्या की आवश्यकता का अनुभव होता था । उपाध्याय श्रीमद् यशोविजय महाराज ने सरलता से इस समस्या का समाधान कर दिया । अध्येतागण शास्त्रवार्ता के हार्द को भात्मसात करते हुये उसका अध्ययन सुगमना से कर सके इस उद्देश्य से उन्हों ने 'त्याद्वादकल्पलता' नामक एक विस्तृत व्याख्या लिखी जिसमें मूलग्रन्थ और उसकी स्वोपज्ञ व्यारव्या के अनुसार मुलग्रन्थ के मर्मस्थलों पर विशद प्रकाश डाला गया अभ्यासी वर्ग को शास्त्रबार्ता के तात्पर्यफल को हस्तगत करने में सचमुच इस व्याख्या ने कल्पलता का ही कार्य किया है। केवल इतना ही नहीं किन्तु जैनेतर-दर्शन के अनेक अपक्व अपूर्ण या अर्धपूर्ण सिद्धान्तों की नवीनन्याय- शैली से कडी आलोचना कर उन सिद्धान्तो को किस प्रकार पूर्ण बनाया जा सकता है इस दिशा में भो