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इस व्यारव्या द्वारा पर्याप्त मार्गदर्शन किया गया है। इस में कोई सन्देह नहीं है कि अनेक वादस्थलों को विस्तृत चर्चा से यह व्याख्याग्रन्थ भो एक स्वतन्त्र ग्रन्थ जैसा बन गया है।
__ मूल शास्त्रवाग्रिन्थ को ११ विभागों में वर्गीत करके प्रत्येक विभाग में भिन्न भिन्न दर्शनों के अनेक सिद्धान्तों को विस्तार से पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत कर अनेक नवीन युक्तियों से उनके उत्तरपक्ष को उपस्थित किया गया है जो अतीव बोधप्रद एवं आनन्ददायक है। प्रथमस्तबक में भूतचतुष्टयात्मवादी नास्तिक मत का खण्डन है । दूसरे में काल-स्वभावनियति-कर्म इन चारों की अन्यानपेक्ष कारणता के सिद्धान्त का वण्डन है । तीसरे में न्याय-वैशेषिक अभिमत ईश्वरकतत्व और सांख्या भिमत प्रकृति--पुरुषवाद का खण्डन है। चतुर्थ स्तबक में बौद्धसम्प्रदाय के सौत्रान्तिकसम्मत क्षणिकरब में बाधक स्मरणाअनुपपत्ति दोस्खाकर क्षणिक बाह्यार्थवाद का खण्डन है । पंचम स्तबकमें योगाचार अभिमत क्षणिकविज्ञानवाद का खण्डन है। छट्वे स्तबकमें क्षणिकत्वसाधक हेतुमों का निराकरण किया गया है। सातवे स्तबकमें जैन मत से स्याद्वाद का सुंदर निरूपण किया गया है। आठवेस्तबकमें घेदान्ती अभिमत अद्वैतवाद का खंडन विस्तार से बताया गया है । नववेस्तबमें जन भागों के अनुसार मोक्षमार्गकी मीमांसा की गई है। इसवे नकारें गर्वन के मालिक का समर्थन किया गया है और ग्यारहवे स्तबकमें शास्त्रप्रामाण्य को स्थिर करने के लिये शब्द और अर्थ के मध्य सम्बन्ध न मानने वाले बौद्धमत का प्रतिकार किया गया है। इन सभी स्तमको में मुख्य विषय के निरूपण के साथ अनेक अवान्तर विषयों का भी निरूपण किया गया है, जिन में अन्त में स्त्रीवर्ग की मुक्ति का निषेध करनेवाले जैनाभास दिगम्बरमत की पूर्ण एवं गम्भौर आलोचना की गयी है। श्रीउपाध्यायजी ने अपनी स्याद्वाद-कल्पलता में जैन तर दार्शनिकों के अने मतों की बड़ी गहरी समीक्षा और अलोचना की है।
स्याद्वाद-कल्पलता की रचना करनेवाले श्रीयशोविजयजी महाराज ने भागमप्रकरण-तर्क-साहित्य-काव्य आदि अनेक विषयों पर अन्य भी कई विस्तृत व्याख्यायें लिखी है तथा कतिपय स्वतन्त्र प्रन्थो की भी रचना की है, इस प्रकार उन्हों ने जीवनव्यापी साहित्य साधना से जैनदर्शन को महत्ता और यशस्विता का जो गान किया है एवं अल्पमति मध्येतावर्ग के उपर जो अनन्यसाध्य उपकार किया है उसके लिये जैन तथा जैनेतर सभी जिज्ञासु प्रजा उनकी सदा के लिये ऋणी है । हमारी समझ से उनके ग्रन्थों की आलोचना करने की स्थानिक कल्पना भी दुर्भाग्य की बात है। हा- यदि उनके प्रन्थो का मर्मस्पर्शी अध्ययन करने का तथा उनके विषयप्रतिपादन के भांशिक तात्पर्य को भी हृदयंगम करने का अवसर इमें मिल सके तो यह हमारे परम सौभाग्य की बात है। ऐसे समर्थ विहान् श्री