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________________ हरिभद्रसरि भोर श्रीमद् उपाध्यायजी के बारे में भी कतिपय विद्वानों की ओर से मसंगत विधान होते रहते हैं यह भी एक कम खेद की बात नहीं । ६-ग्रन्थकार और व्याख्याकार के बारे में कतिपय वक्तव्यो का अनौचित्य आर्यदेश भारत में अहिंसा की आधारशिला पर सामाजिक मुदृढ चारित्रप्रासाद के निर्माण में यदि किसी के महत्वपूर्ण सहयोग का उल्लेख करना हो तो वह भगवान महावीर की परम्परा में होने वाले जैनाचार्य श्रमणवर्ग का हो सकता है । विश्व में आज नैतिकता और भाप्तता के अधिकाधिक प्रसार की गवेषणा यदि की जाय तो उसका सर्वोत्तम स्थान आर्यदेश-भारतवर्ष ही हो सकता है । जैन संध के निस्पृह, त्यागो, संयमी महामुनियों ने देश में सदाचार सद्विचार और सम्यक्श्रद्धा की प्रतिष्ठा के लिये जो पर्याप्त श्रम ऊठाया है उस का यह शुभ परिणाम है कि आर्य देश भारत में आज भी लोगों के जीवन में पर्याप्त शान्ति और अहिंसा की भावना विद्यमान है । इन महापुरुषों में से किसी में किसी कपोलकल्पित अतथाभूत सद्गुण का आरोप कर उसकी श्रेष्ठता बताना और उन आरोपित गुण की न्यूनता को व्यञ्जना से अन्य आचार्यों में हीनता बताने का प्रयास करना अथवा मनमाने ढंग से असहिष्णुता, परावगणना आदि दोषों का आरोप कर उनके गौरव को गिराने की चेष्टा करना अत्यन्त घृणास्पद प्रवृत्ति है । यह बडे खेद को बात है कि यह प्रवृत्ति आजकल पाश्चात्यसंस्कृति से प्रभावित कतिपय जैन लेखकों की भी प्रकृति बन गयी है, ऐसे लोगों की इस प्रवृत्ति का क्या लक्ष्य है यह तो ज्ञानी भगवन्तो को ही ज्ञात हो सकता है, किन्तु इस का एक दुष्परिणाम स्पष्ट देखने में आ रहा है. वह यह कि मार्य प्रजा के हृदय में पूर्व महर्षियों के प्रति मादरसम्मान और श्रद्धाको जो भावना थी उसका दिन प्रतिदिन हास होने लगा है और उसके फल स्वरूप उन महर्षियों से उपदिष्ट सर्वजीवकल्याणसापक सदाचार को उपेक्षा होने से आर्य प्रजा का नैतिक एवं चारित्रिक पतन उत्तरोत्तर वेगवान होता जा रहा है। भाचार्य श्रीहरिभद्रसूरि म, और श्रीमान् उपाध्याय यशोविजय महाराज के बारे में कतिपय जैन लेखकों ने जो अभिप्राय प्रकट किये हैं वे अत्यन्त खेदजनक हैं। शास्त्रवार्ता मूलमन्थ के बारे में एक महाशय ने लिखा है कि-'The text contains several verses borrowed from the works of others.? इस प्तन्दर्भ में यह ज्ञातव्य है कि पूर्वपक्ष के लिये अथवा स्वमत के समर्थन के लिये जिन लोकों का उद्धरण अन्य ग्रन्था से लिया जाता है उन्हें Borrowedया Loaned नहीं कहा जा सकता किन्तु quoted या repeated कहा जा सकता है, अतः ऐसे भन्यतः गृहीत वचनों को Borrowed कहना अत्यन्त असंगत है ।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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