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इसी प्रकार एक विदुषी ने लिखा है कि 'Haribhadra in writting on yoga does not succumb to any narrowmindness or prejudices.' यह कथन भी अर्धसत्य जैसा ही है, अतः पाँच महावतो का पालन करने वाले जैनमुनि किसी भी विषय में किसी के भी प्रति किसी द्वेषदृष्टि को वशीभूत हो कर कोई कार्य नहीं करते । अतः श्रीहरिभद्रसूरिजी जो आरम्भ में वीतराग दे। को नमस्कार कर के ही प्रायः अपने ग्रन्थों की रचना करते हैं, उन्हें केवल योग की ही चर्चा में दृष्टिविशेष से अनभिभूत और निष्पक्ष बताना एक प्रकार से उनके अपकर्ष का ही प्रदर्शन है, क्योंकि वे वीतरागता के प्रति अनन्यनिष्ठा वाले होने के कारण सदा और सर्वत्र असंकीर्ण एवं निष्पक्ष भाव से ही किसी विषय पर विवेचना करते हैं, लेखिका ने उनके शास्त्रवार्ता प्रथमस्त चक्र द्विसीय लोक के 'जायते द्वेषशमनः' अंश पर ध्यान देना चाहिये ।
आचार्य श्रीहरिभद्रसूरि के जीवन की विविध विशेषतायें तथा विच्छेदोन्मुख पूर्वश्रुत में से विकीर्ण श्रुतपुपों का इनके द्वारा गठन आदि की बातें बतायी जा चुकी है, किन्तु एक चचा और भी करनी है, वह यह कि एक पड़ा राय ने श्रीहरिभद्रसूरिजी की विशेषता प्रदर्शित करते हुये लिखा है कि 'हरिभदे जे उदात्तदृष्टि, असाम्प्रदायिकवृत्ति भने निर्भयनम्रता पोतानी चर्चाओ मां दाखदी छे तेवो तेमना पूर्ववर्ती के उत्तरवर्ती कोई जैन, जैनेतर विद्याने बहावेली भाग्ये न देखाय छे' स्पष्ट है कि लेखकने श्रीहरिभद्रसूरि को उदात्तदृष्टि-अप्साम्प्रदायिक आदि कह कर भाज तक के सभी जैन जैनेतर विद्वानें। से श्रेष्ठ बताने का प्रयास किया है, किन्तु इस प्रयास से अन्य सभी जैन विद्वानों की जो अवगणना प्रतीत होता है, वह उचित नहीं हैं । श्रद्धाल एवं विवेकशील जैनजनता की दृष्टि में सभी जैन विद्वान् और संयमी मुनिगण निर्दोषता और रागद्वेषरहितता के आधार पर उपास्य हैं, अतः उन में अनुचित उत्कर्षापकर्षे बताना जैन जगत की उदात्त संस्कृति के अनुरूप नहीं कहा जा सकता ।
लेखक ने श्री हरिभद्रसुरजो को असाम्प्रदायिक कह कर उन्हें स्कृष्ट और अन्योको अपकृष्ट बताने का संकेत किया है, यह भी एक अनुचित प्रयास है, क्योंकि भारत की भार्य संस्कृति में साम्प्रदायिकता को मद्गुण माना गया है, विशेष कर उप्त साम्प्रदायिकता की जिससे सामान्य जनता में अहिंसा, त्याग, संयम मादि बहुमुल्य सद्गुणों की प्रतिष्ठा और उनका संरक्षण होने की अत्यनिक सम्भावना है । जो सम्प्रदाय नैतिकता, धार्मिकता, आध्यात्मिकता, चारित्रिक संयम और समस्त जीव के अभ्युत्थान की भावना पर प्रतिष्ठित हुआ है उस सम्प्रदाय से सम्बद्ध होना उसके संरक्षण और संवर्धन का प्रयाप्त करना दूषण नहीं अपि तु भूषण है । आज राजनीति और विज्ञान के जाश्वल्यमान युग में भी साम्प्रदायिकता का महत्व