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पूर्ववत् मान्य है -यही कारण है कि आज भारत देश के स्वतन्त्र अस्तित्व के संरक्षण तथा राज्य की सन्यवस्था के लिये जिस राजनैतिक सम्प्रदाय संगठन को समर्थ समझा जाता है उसे मत देकर पुष्ट बनाने का भरपूर प्रयास किया जाता है । यदि किसो सम्प्रदाय का कोई व्यक्ति आवेश में भाकर दूसरे सम्प्रदाय के अस्तित्व का लोप करने के लिये निन्द्य प्रयास फरे तो ऐसी साम्प्रदायिकता अवश्य त्याग्य है किन्तु इस त्याग्य साम्प्रदायिकता की दृष्टि से मात्र श्री हरिभद्ररि हो असाम्प्रदायिक नहीं हैं, किन्तु सभी जैन विद्वान् तथा जैनमुभि असाम्प्रदायिक हैं, अतः एकमात्र श्री हरिभद्रसूरि को ही उक्त अर्थ में असाम्प्रदायिक मताने से अन्य विद्वानों के प्रति तथा सरसम्प्रदायों के प्रति देवप्रदर्शन के आतरिक भोर कोई उपलब्धि नहीं होती।
निर्भय-नम्रता को जो बात की गयी है उसे भी मात्र श्री हरिभद्रसूरि में ही सीमित करना ठीक नहीं है, क्यो कि यह विशेषता भी समस्त जैन विद्वानो में सदैव मक्षुण्ण रही है । यतः अपने से अधिक बहुश्रुत, गुणवान, सम्यग ज्ञानी व्यक्तियों के प्रति गुरुवत् बहुमान आदि प्रदर्शन के शौचित्य का पालन समी विद्वान निरन्तर करते रहे हैं। इतना ही नहीं, अन्य सम्प्रदाय के व्यक्ति में भी जब कोई विशेषता ज्ञात हुई तब उसका भी औचित्यपूर्ण स्मरण भनेक जैन विद्वानों ने अपने ग्रन्थो में निर्भयता एवं उदारतापूर्वक किया है । कुवलयमाला में उद्योतनसूरि ने वाल्मिकी और बाणभट्ट के कथाप्रबन्धी का
औचित्यपूर्ण स्मरण किया है। तथा धनपालकवि ने अपनी तिलकमञ्जरी में अनेक जैनेतरकाययों का स्मरण किया है । ऐसे अनेक दृष्टान्त जैमसाहित्य में उपलब्ध हैं । उक्त महाशयने श्रोहरिभद्रमुरिजी के कतिपय ग्रन्थों के श्लोक मादि का उद्धरण देकर भी इस विषय में भ्रम और मिथ्यावासना से पूर्ण अपनी मान्यताओं का समर्थन करने का प्रयास किया है, जिससे लेखक की मनोविकृति का स्पष्ट दर्शन हो पाता है, उसके कतिपय उदाहरण इस प्रकार हैं
षदर्शनसमुच्चय में चाकिदर्शन का निरूपण है, उसके बारे में महाशयजी का कहना है कि "न्याय भने वैशेषिक ए बे दर्शनो जुदा नथी, एम माननारनी दृष्टिए तो आस्तिकदर्शनो पांच ज श्रया तेथी करली प्रतिज्ञा प्रमाणे छठु दर्शन निरूपवानुं प्राप्त थाय के तो ए निरूपण चार्वाक ने पण दर्शनतरीके लेखी पुरु कर जोइए । आम कही तेमो (श्री हरिमद्रसूरि) चार्वाक प्रत्ये समभाव दाखवे छे ।' -इस वक्तव्य से स्पष्ट है कि महाशयत्री ने कारिका का अर्थ समझने में भूल की है, क्यों कि कारिका का वास्तविक अर्थ यह है कि
१-षट् दर्शनसंख्या तु पूर्यते तन्मते किल । लोकायतमतक्षेपे कथ्यते तेन तन्मतम् ।।
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