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"जो लोग न्याय-वैशेषिक दर्शन में भेद नहीं मानते उनके मत से लोकायतमत के प्रक्षेप से दर्शनों की संख्या छः होती है, इसलिये उस मत का कथन किया जा रहा है ।" इस कारिका से यह तथ्य निकालना कि 'श्री हरिभद्रसूरि ने चार्वाकमत को भी दर्शन माना है अतः चार्वाक के प्रति उनके इस समागाद ना , अन् संगन है, डोंकि कारिका में 'तन्मते' शब्द में तत्पदले उन्हों ने स्पष्ट रूप से उनका संकेत किया है जो न्याय और वैशेषिक को दो दर्शन न मान कर एक दर्शन मानते हैं । यह भी ध्यान देने को बात है कि जब श्री हरिभद्रसुरि जी ने चार्वाक मत को स्वयं अपनो भोर से दर्शन नहीं माना है तब चार्वाक के प्रति उनका समभाव बताने का क्या अर्थ हो सकता है ! ऐसा लगता है कि महाशयी ने समभाव का भी कोई मनगढन्त अर्थ मानकर उस शब्द का प्रयोग किया है क्योंकि किसी के प्रति द्वेषपूर्ण माचरण न करना', समभाव के इस सत्य अर्थ को यदि उन्होंने समझा होता तो वे उसे केवल हरिभद्रसूरि में ही बांधने का साहस न करते, क्योंकि यह समभाव सभी जैन विद्वानो में समानरूप से उपलभ्यमान है-क्योंकि द्वेषाचरण मिटाने के लिये सभी जैन विद्वान् सदा उद्यमशील रहे है । महाशयजी को दृष्टि से समभाव का अर्थ यदि यह हो कि 'अन्यमत के मिथ्यावाद का प्रतिकार न करना' तो उनका यह व्यक्तिगत समभाव हो सकता है न कि सर्वमान्य । वास्तव में तो यह समभाव नहीं किन्तु अविवेक है, क्योंकि उसमें असत्य का समर्थन या मूकानुमोदन होता है। श्री हरिभद्रसूरिजी तो अनेकान्तजयपताका आदि में शटोक्तिओं का निराकरण कर ऐसे अविवेक के त्याग का महत्त्वपूर्ण भादर्श हमारे सम्मुख रख गये हैं। श्रीहरिभदसूरिजी के शास्त्रवानादि ग्रन्थों में जैने तर विद्वानों के लिये सुमधुद्धि, महामुनि, महर्षि इत्यादि विशेषणों का प्रयोग प्राप्त होता है, इस आधार पर महाशयनी का कहना है कि-'परवादी मन्तव्यो थी जुदा पड़वा छतां तेमना प्रत्ये जे विरल बहुमान अने आदर दर्शाये छे ते तेमणे (श्रीहरिभद्रसूरिबीए) आध्यात्मिकक्षेत्रमा मापेली एक विरल भेट गणवी जोइये"
इस संदर्भमें यह ज्ञातव्य है कि जैनेतर विद्वानों के लिये जो उक्तविशेषण प्रयुक्त है उन से यह निष्कर्ष निकालना कि 'श्रीहरिभद्रसूरिने उन्हें अपनी ओर से आदर दिया है। ठीक नहीं है, क्योंकि अपने सिद्धान्त के विपरीतपक्ष को समर्थन देने वाले को आदर देने का अर्थ होता है 'उसके पक्ष को आदर देना' जो उचित नहीं है । अतः उक्त विशेषणों का प्रयोग अनुवादमात्र समझना चाहिये । हाँ यदि श्रीहरिभद्रसूरि में महत्ता, उदारता और विवेक कि कमी होती तो वे विशेषण का त्याग कर केवल नाम मात्र से भी उनका निर्देश करते, किन्तु वे स्वयं संयमशील महान् पुरुष होने के नाते ऐसा न कर सके, यह विशेषता उनके समान हो जैनसम्प्रदाय के अन्य विद्वान में भी प्राप्य है । दूसरी जानने योग्य बात यह है कि अन्य सम्प्रदाय के भी विद्वान् इसी दृष्टि