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से मादर देने योग्य है कि वे भी अपनी दृष्टि से संसार वासना को शिथिल और आध्यात्मिक भावना को जागृत करने का प्रयास करते है । किन्तु जहाँ दृष्टियों और सिद्धान्तों के सत्याऽसत्य के निर्णय की बात है वहाँ उन्हें मसत्पक्षानुयायां होने से मना करने में श्रीहरि भनसुरिजी को तथा अन्य जैनविद्वानों को कभी कोई हिचक नहीं होती असा कि-'कुवादियुक्त्यपव्याख्यानिरासेन', 'पापश्रुतं सदा धीरैर्वज्यं नास्तिकदर्शनम्' 'को विवादो नो बुद्धिशून्येन सर्वथा', 'दृष्टेष्टाभ्यां विरुद्धता दर्शनीया कुशास्त्राणाम्' ऐसे उनके अनेक प्रयोगों से स्पष्ट है।
आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजीने कहीं कहीं परवादियों के मन्तव्यों की आंशिक युक्तता भी बतायी है जिनका तात्पर्य उन्होंने इस प्रकार स्पष्ट किया है कि जैनेतर विद्वानों के कतिपय मन्तव्यों में अनेक विनयजनों का भादर है, उनमें उनका बुद्धिभेद न हो इसलिये उन मन्तव्यो की किंचित् युक्तता बताने का प्रयास किया गया है, उदाहरणार्थ शास्त्रवार्ता अन्ध में ईश्वरवाद में कहा गया है कि-'कर्तायमिति तद्वाक्ये यतः केषाञ्चिदादरः । अतस्तदानुगुण्येन तस्य कर्तृत्वदेशन "॥२०६॥ ईश्वरकर्तृत्ववाद का कञ्चित् समर्थन ऐसे लोगों के उपकार की भावना से किया गया है जिनका उस वाद में आदर है, जिन्हें उसी से नैतिक होने में सहायता मोलती है। इससे स्पष्ट है कि श्रीहरिभद्रसरिजी दूसरे दर्शनों के सिद्धान्तों में सत्य का अन्वेषण नहीं करते किन्तु जैन दर्शन के अनुसार उसमें कितना पत्यांश है और कितना असत्यांश है यह बताने का प्रयास करते हैं । अथवा असत्यांश बताने पर भी उन दर्शनों के अनुयायोओ में बुद्धिमेद न हो इस बात का भी पूरा ध्यान रखते हैं। अपने सभी ग्रन्थो में श्री हरिभद्र सारे जी महाराज ने वीतराग जिनको मङ्गलश्लोक में अभिवादन कर जैनदर्शन के प्रति अपनी गाढ श्रद्धा और अपने महान् मादरभाव का प्रदर्शन किया है, फिर भी उन्हें सभी दर्शनों में समभावधारक बताना कोरी धृष्टता है । यह भी एक विचित्र बात है कि महाशयजी ने एक ओर तो श्रीहारेभद्रमरिजो की विशेषता बताने का यत्न किया है और दूसरी ओर स्थान स्थान में सम्मान सूचक शब्द से मुक्त केवल 'हरिभद्र' शब्द का प्रयोग किया है । यह शब्दव्यवहार उस महाशय की किस मनोदशा का घोतक है, पाठक स्वयं इसे समझ सकते हैं । महात्माजी के नाम से लोकप्रसिद्ध माधुनिक पुरुषविशेष का जहाँ उल्लेख होता है यहाँ भी उक्त महाशय को पूज्य महात्मा मादि शब्दों के प्रयोग में भी प्रमाद नहीं होता, पर आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी के लिये सम्मानबोधक शब्दों से मुक्त केवल कोरे नामगात्र का प्रयोग करने में उसे कोई हिचक नहीं होती । इस से स्पष्ट हो जाता है कि महाशय की क्या वचनदरिदता है, सम्प्रदाय के महामहिम आचार्यों और विद्वानों के प्रति उसकी क्या धारणा है, महाशय के ऐसे तुच्छत्र्यवहार से पाठको को यह समझने में विलम्ब नहीं होगा कि आचार्य श्री के प्रति लेखक के हृदय में कोई