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________________ प्रायश्चित्त को मांग को तथा अपनी ओर से मात्मशुद्धि के लिए १४५५ ग्रन्थों की रचना करने की भीष्म-प्रतिज्ञा को जिसके पालन को पहला फलश्रुति 'समराइचकहा' की रचना हुई। ४.आ. श्री हरिभद्रमूरिजी का समय-निर्णय भाचार्य श्री हरिभद्र सूरिजी ने बहुत प्रन्थों की रचना की है किन्तु किसी भी ग्रन्थ में रचना संवत् का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त न होने के कारण उनका समय विद्वानों के बीच भारी चर्चा का विषय बन गया । श्री टिभद्रसूरिजी के समय का निर्णय करने के लिए जितनी सामग्री उपलब्ध है उत्तप्त तान मत फालत होन है दिन में दो मत प्राचीन हैं और एक माधुनिक है। [१]-प्रथम मत यह है कि हरिभद्रसूरिनी विक्रम संवत ५८५ में स्वर्गवासी हुएइस मत के समर्थन में अनेक प्रमाण दिये जाते हैं, जिनमें यह गाथा मुख्य है पंचसए पणसीए विक्रमकालाओ शत्ति अथमिओ। हरिभदसूरीसरो भवियाण दिसउ कल्लाणं ॥ यह गाथा वि. सं. १३३० में श्री मेरुतुजसूरि द्वारा विरचित प्रबन्धचिन्तामणि नामक अन्ध में उद्धृत की गई है जिसके कारण इस मत की प्राचीनता सिद्ध होती है। इसके अतिरिक्त विचारश्रेणी आदि अनेक ग्रन्थों में भी यह उपलब्ध होती है । यद्यपि कुछ अन्धकारों ने वि. सं. ५५५ वर्ष में भी हरिभद्र सुरि के स्वर्गवास का कथन किया है, फिर भी विक्रम की छटो शतान्दी तो प्रायः सर्वमान्य है। श्री हरिभद्रसूरिजीने लघुक्षेत्रसमास की वृत्ति बनाई है--जिसका उल्लेख जेसलमेर और संवेगी उपाश्रय (अहमदाबाद) के भाण्डागार की हस्तलिखित प्रत के अन्त भाग में निम्नलिखितरूप में प्राप्त होता है-- "लघुक्षेत्रसमासस्य वृत्तिरेषा समामतः । रचिताऽबुधशेषार्थ श्रोह रिभद्रमूरिभिः ॥१॥ पश्चाशितिकवर्षे विक्रमतो व्रजति शुक्लपश्चभ्याम् । शुक्रस्य शुक्रवारे पुष्ये शस्ये च नात्र ॥२॥ यहाँ द्वितीयगाथा में विक्रम से ८५ वर्ष में शुक्लपञ्चमी के दिन शुक्रवार को ग्रन्थ रचना का समय बताया है-किन्तु पञ्चाशिति शब्द से मात्र ८५ ईने में तो बहुत बाधायें है, अतः पञ्च-अशिति से ५८० का ग्रहण सम्भव हो सकता है जिससे प्रथम मत हो पुष्ट होता है | जैन परम्परा में यह भी एक वृद्धप्रवाद है और कई प्रकार ने भी बताया है कि श्री हरिभद्रसूरि 'पूर्व' नामके श्रत का बहुमात्र विच्छेद होने के निकटकाल में ही हुए थे और उस समय तक बचे हुए पूर्व के अंशो का संग्रहकार्य उन्होंने किया था। श्री
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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