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से भागे किन्तु बौद्ध ने निकट माकर संघर्ष मचाने पर उन्होंने सोचा कि अर भागने से काम न चलेगा, उचित यह है कि हम इमसे संघर्ष कर ले और जब ये संघरित हो जाय तर हम में से एक व्यक्ति इन्हें संघर्ष में फंसा रखे और दूसरा व्यक्ति लिखित भोजपत्र के साथ चुपकीदी से भाग निकले । फलतः इस संकटग्रस्त बुद्धिमान शिष्ययुगल में से एकने जिनशासन की सेवा में आत्म-बलिदान को अपूर्व लाभ मानकर बौद्ध शिष्यों के साथ संघर्ष करते हुये जिनधर्म की सेवा की वेदी पर अपने प्राण न्योछावर कर दिये और दूसरा भागता दौडता किसी प्रकार भाचार्य श्रीहरिभद्ररि के चरणों के निकट पहुँच गया और भोजपत्र पर लिखित बौद्ध तकौ का खण्डनात्मक पुस्तक गुरुदेव को समर्पित कर दिया और चौड़े। की करता से भरी बीती घटना का वर्णन करते हुए श्रमजन्यपीडा और बौद्धो की क्रूरतासे जनित मनोदुःख को न सह सकने के कारण उसे अकाल काल के कराल गाल में समा जाना पड़ा । जिनशासनामृत के अनवरत पान से मत्यन्त प्रशान्त भी आचार्य का हृदय अपने शिष्यों पर बीती करतापूर्ण घटना और उनके फरुण अन्त से उदीत हो ऊठा और क्रोधाग्नि की प्रचण्ड ज्वाला से तमतमा ऊठा | उन्होंने तत्काल राजा के पास पहुँचकर इस पणबन्ध के साथ भी राजसभा में बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ करने की घोषणा की कि जो शास्त्रार्थ में पराजित हो वह अग्नि की तीत्र ज्वाला पर उबलते हुये तैल के तप्त कटाह में कूद कर प्राणत्याग करे । राजा की देखभाल में शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ | श्री हरिभद्रसूरि ने स्याद्वाद के अभेद्य कवच का आश्रय ले अपने सिद्धांत की रक्षा करते हुए अपने अकाट्य तों से एक एक कर १४११ बौद्धषिद्वानों का मानमर्दन कर समग्र बौद्धसिद्धान्तों को धराशायो बना दिया। राजसभा में जैनशासन की विजय-दुन्दुभी बजने लगी । और पराजित बौद्धों को पूर्व घोषित पणबन्ध के अनुसार उबलते तेल के कटाहों में निक्षिप्त करने की तय्यारी होने लगी । जब यह घटना आचार्य के गुरुदेव श्री जिनभरि को ज्ञात हुई तो उन्होंने इस महान् अनर्थ को रोकने के लिये आचार्य के पास तीन प्राकृत गाथायें लिख भेजी, जिनमें गुणसेन तथा अग्निशर्मा के प्रथम अब से समरादित्य केवलो तथा गिरिसेन नामके नवम भवनक के नामों का उल्लेख था और अन्समें लिखा था 'एक्कस्स तो मोक्खो, बोअस्स अणंतसंसारो' अर्थात् अनेक जन्मों से क्षमा-उपशम का अभ्याप्त करने वाले अकेले समरादित्य को मोक्षलाभ हुआ और अन्य अग्निशर्मा को उनके क्रोधी स्वभाव के कारण अनन्तसंसार परिभ्रमण का उपार्जन करना पड़ा । इन गाथाओं ने आचार्य के क्रोधतात हृदय पर शीतलजल की मूसलघार वर्षा का काम किया । उनका हृदय शान्त हो गया। उन्होंने पराजित बौद्धों को प्राणदान दिया मोर स्वयं अपने गुरुदेव के पास जा कर उनके चरणों में शिर रखा और अपने क्रोध के लिए