________________
अविश्रान्तभाव से चलती रही जिसके विना मनुष्य का न तो तत्वदर्शन ही पूरा हो पाता और न चारित्र्य हो मोक्षात्मक लक्ष्य के साधन में सफल हो पाता । वह विषय है ध्यानसाधना, इस पर भी आचार्य ने कई ग्रन्थ लिखे, जैसे ध्यानशतकटीका, योगशतक, योगविंशिका, योगबिंदु, योगदृष्टिसमुच्चय, सप्रकरण आदि । निश्चय ही ये ग्रन्थ मोक्षमार्ग के पथिक साधक के लिये महान शंकल है ।
परवर्ती प्रायः सभी जैनाचार्यों ने कहा है कि आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने मनुष्य जाति के आत्मोन्नायक विविध विषयों पर करिब १४४४ शास्त्रग्रन्थ की रचना की है। यह विशाल रचना अत्यन्त स्पष्टरूप से इस तथ्य को संकेतित करती है कि आचार्य श्री के जोबन का सम्पूर्ण समय श्रुतोपासना में ही जाता रहा जिसके फलस्वरूप अज्ञानजगत् को उनकी कृतियों के रूप में पर्याप्त समृद्धि सुलभ हो सकी ।
३- आचार्य श्री हरिभद्रसूरि के जीवन की विशिष्ट घटना
आचार्य श्री के संवारावस्था के दो भगिनींपुत्र थे जिनका नाम था हंस और परमहंस । इन दोनों ने आचार्य श्री का शिष्यत्व स्वीकार कर शास्त्र का अच्छा वैदुष्य प्राप्त किया था ! एक दिन दोनों ने आचार्य श्री के चरण का स्पर्श कर उस बात के लिए उसकी आशिर्वादपूर्व अनुमति माँगी कि वे बौद्ध पाठशाला में जाकर बौद्धमत का साम्प्रदायिक अध्ययन करें जिससे उस के एकान्तमत का यथोचित खण्डन कर सके। गुरुदेव ने इस प्रयास को संकटपूर्ण बताकर उन्हें ऐसा करने से विरत करना चाहा किन्तु उनका प्रबल उत्साह देखकर (मूक) अनुमति दे दी। इन शिष्यों ने बौद्धमठ में जाकर तदनुकूल वेष में रहते हुए बौद्धशास्त्रों का अध्ययन प्रारम्भ किया। ये प्रति दिन बौद्धसिद्धांत के समर्थन में जिन तर्कों का अध्ययन करते थे उनके खण्डनक्षम प्रतिकूल तर्क गुप्तरूप से भोजपत्र पर लिखते जाते थे। एक दिन एक भोजपत्र बौद्धाचार्य के पास पहुँच गया। उसने इन अकाट्य प्रतितर्कों को देखकर सोचा कि ये किसी जैन के हो हो सकते हैं। अन्वेषण करने पर उसे ज्ञात हुआ कि यह कार्य हंस और परमहंस का है । वह इन दोनों पर आगबबूला हो उठा और इन्हें मार डालने के लिए अपने वक्र गतिमान कर दिये । बौद्धाचार्य के इस क्रूर कर्म की जानकारी होते ही बौद्ध तर्कों के austress प्रतितर्कों लिखने का अभी तक का सारा परिश्रम बेकार न हो जाय, इस विचार से वे दोनों ही शिष्य अपने भोजपत्र को लेकर बौद्धमठ से भाग निकले । बौद्धाचार्य के दूसरे बौद्ध शिष्य ने उनका पीछा किया। भागनेवाले शिष्य ने मार्ग में किसी एक राजा से आश्रय की माँग की । राजा यद्यपि बौद्ध के क्रूर आवार से बौद्ध के प्रति कुदृष्टि रखता था, फिर भी बौद्ध के दाक्षिण्य के कारण उन्हें आश्रय न दे सका। हंस और परमहंस वहाँ