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साथ न्याय करते हुये सभी नयों के समन्वय से एक प्रमाणपरिपुष्ट दार्शनिक सिद्धान्त की प्रतिष्ठापना की गयी है।
श्री हरिभद्रसूरि महाराज को इस बात का ध्यान सदैव रहता था कि जो बात कही जाय वह सुपरीक्षिन हो. किसी सिद्धान्त को त्रुटिपूर्ण और अपने सिद्धान्त को निर्दोष बतानेका एक सर्वमान्य परीक्षात्मक आधार हो । इसी दृष्टि से प्रेरित हो उन्होंने 'धर्मबिन्दु' नामक एक प्रन्थ को रचना कर यह बताने का प्रयास किया है कि जैसे कष-छेद और ताप इन तीन प्रकारों से सुवर्ण की परीक्षा की जाती हैं उसी प्रकार समीचीन तकों के आधार पर निष्पक्षभाव से स्थापना, प्रतिस्थापना और इन दोनों की समीक्षा द्वारा निष्कर्षप्राति की प्रणाली से शास्त्रीयविषयों की भी परीक्षा को जानी चाहिये तथा इस प्रकार की परोक्षा से विशुद्ध सिद्ध होने वाले पक्ष को ही सिद्धान्त का रूप देना चाहिये । सुपरीक्षित सत्य का आश्रय लेने से मनुष्य कुमार्ग पर जाने से बच जाता है तथा सन्मार्ग पर चल कर अपने वास्तविक आत्महित की साधना कर सकता है और दिशाहीन हो कर इधर उधर भटकने में जीवन के बहुमूल्य क्षणों को नष्ट करने की दुःस्थिति में वह नहीं पड़ता।
आचार्य श्री ने गः महा है कि बुदा पदार्गरे हैं जो निदलातीत एवं तर्कातीत हैं, उनकी अवगति (बोध) केवल भाव और श्रद्धा से ही सम्भव हो पाती है। ऐसे पदार्थों के विषय में उन्होंने श्री सिद्धसेन दिवाकर का अनुसरण किया है और कहा है कि इन श्रद्धागम्य अतीन्द्रिय पदार्थों को तर्क की तुलापर तोलने का प्रयास अनुचित है क्योंकि तर्कों में इन पदार्थों का भार सहन करने की क्षमता नहीं होती । इस संबन्ध में बुद्धिधन भर्तृहरि के इस कथन को उन्होंने दोहराया है कि श्रद्धागम्य-अतीन्द्रिय पदार्थ यदि तर्क को परिधि में आ सकते तो तर्कवादियों ने अब तक उनके विषय में अन्तिम निष्कर्ष की दुन्दुभि बजा दी होती। अतः विवेकशील मुमुक्षुजनों का हित इसी में है कि वे ऐसे पदार्थों के विषय में शुष्क तर्कों के बीच निरर्थक. चक्कर न लगाकर उन्हें श्रद्धापूर्वक स्वीकार कर उनका मात्मा के उन्नयन में उपयोग करें।
___ भाचार्य श्री हरिभद्रपूरि ने केवल दार्शनिक तत्त्वों पर ही अपनी लेखनी को गतिशील नहीं रखी है अपितु जनता को निष्कलुष जीवन बिताने और सञ्चारित्र्य का पान करने की शिक्षा देने के लिए भगवान द्वारा उपदिष्ट आचारों का संकलन कर 'पञ्चवस्तु' जैसे यतिआचारशास्त्र तथा 'पञ्चाशक' जैसे श्रावक-आचारशास्त्र की अवतरणा के लिये भी उसे क्रियाशील किया है जिसके फलस्वरूप प्राचारशास्त्र के ऐसे उत्तम ग्रन्थ भाग्यवान जनों को सुलभ हो सकते हैं। इतना ही नहीं कि उनको लेखनी ने मात्र दार्शनिक तत्त्व और जीवन के परिकारक आचार तक ही यात्रा कर विश्राम ले लिया किन्तु वह उस विषय के प्रतिपादन तक