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________________ सिद्धान्तों का समीचीन परिचय प्राप्त हो सकता है और तुलनात्मक दृष्टि से सभी दर्शनों के अध्ययन कर जैनदर्शन की अन्यापेक्षया विशिष्टता ओर श्रेष्टता का परि ज्ञान किया जा सकता है। आत्मवाद के क्षेत्र में प्रचलित दर्शनों के तत्वसिद्धान्तों का तथा उनकी समीक्षा का प्रकाश प्रसारित करने के उद्देश्य से आचार्यश्री ने 'शास्त्रवत्र्तासमुच्चय' नामक एक महान ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ में न केवल जैनशास्त्र के विषयों का विवेचन ही है अपितु जैनेतर सम्प्रदायों और शास्त्री के प्रतिपाय विषयों का संकलन, यथासम्भव तर्कों द्वारा उनका प्रतिपादन और उनके सभी पक्षों को विस्तार के साथ समर्थन देकर अत्यन्त निष्पक्ष भाव से उनकी समीक्षा की गयी है। उन शास्त्रों के सिद्धान्तों में जो त्रुटियो प्रतीत होतो हैं उनके परिमार्जन के लिये जितने भो तर्क हो सकते हैं उन सभी को प्रस्तुत करते हुये उनका खोसलापन दौखा कर बड़ी स्पष्टता से यह सिद्ध किया गया है कि उन सिद्धान्तों में ये त्रुटियाँ वास्तविक हैं और उनका कोई परिहार नहीं हो सकता । जैनसिद्धान्तों की चर्चा के प्रसङ्ग में भी उनके प्रति कोई पक्षपात नहीं दिखाया गया है, उन्हें त्रुटिपूर्ण बताने के लिये जो भी तर्क सम्भव हो सकते हैं उन सभी को सामने खड़ा कर उनकी असतकता (अयोग्यता) बतायी गया है और यह प्रमाणित किया है कि जैन सिद्धान्तों में जिन त्रुटियों को परिकल्पना की जा सकती हैं उनका कोई आधार नहीं है । इस ग्रन्थ की रचना का यह पवित्र लक्ष्य भो प्रारम्भ में ही बता दिया गया है कि यह प्रन्थ जगत् को यथार्थ तत्त्वज्ञान का उपदेश इस दंग से देने के लिये लिखा जा रहा है जिससे विभिन्न दर्शनों के अनुयायियो में परस्पर वेप का उपशम और सत्य ज्ञान का लाभ हो कर सभी का कल्याण हो सके । इस ग्रन्थ के अतिरिक्त 'ललितविस्तरा' 'अनेकान्तजयपताका' आदि अन्य भी कई ग्रन्थ आचार्य श्री को समर्थ लेखनी से प्राकट्य में आये हैं, जिनका अध्ययन और मनन जिज्ञानु जनों के लिये अनिवार्यरूप से अपेक्षित है। आज के विद्वर्ग के सम्मुख एक महान् कार्य कर्तव्य रूप में उपस्थित है- वह हैं आचार्य श्री हरिभद्रमूरि के दार्शनिक ग्रन्थों के भाधार पर एक तर्कपूर्ण व्यवस्थित सिद्धान्तमाला का संकलन | यदि एक ऐसा विशुद्ध संकलन हो सके तो निश्चितरूप से इसके द्वारा विभिन्न दर्शनो के अनुयायियों में परस्पर सोहार्द और सौमनस्य एवं सामनस्य की भावना जागृत हो सकती है और एक दूसरे की संगत दृष्टि के प्रति यथोचित आस्था की प्रतिष्ठा हो सकती है । प्रत्येक दर्शन का अनुयायी यह तथ्य हृदयङ्गम कर सकता है कि उसे अभिमत दार्शनिक सिद्धान्त नयदृष्टि से कथञ्चित् मान्य एवं उपादेय है और वह इस सत्य को भी स्वीकार कर सकता है कि जैन दर्शन में नय और प्रमाण का विभेद बताकर सभी दार्शनिक सिद्धान्तों के
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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