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अवबोध होने लगा । भाखिर एक दिन उनके मुँह से यह उद्गार निकल पड़ा कि "हा अपाहा काहं हुन्मा, जइ न दुनो जिनोमारे जो अनाथजीवों की क्या गति होती यदि विश्व में जैनागमों की सत्ता न होती। परिश्रम, निष्ठा और गुरुभक्ति के साथ अध्ययन के फलस्वरूप बहुत थोडे ही समय में श्री हरिभद्र मुनि ने जिनागम के सूक्ष्मतम सिद्धान्तों का तलस्पर्शी विस्तृतज्ञान अर्जित कर लिया । उन्होंने जैनशास्त्रों का विशालज्ञान पाण्डित्यप्रदर्शन, शास्त्रीय विवाद अथवा कीर्तिलाभ के लिये अर्जित नहीं किया था किन्तु ज्ञान-दर्शन और चारित्र रूप रत्नत्रयो की आराधना द्वारा अपने जीवन के परिष्कार और आत्मिक उत्थान के लिये किया था । इसी लिये उनकी परिपूर्ण योग्यता और पवित्र मुनिजीवन में निष्ठा देखकर उनके गुरुदेव ने उन्हें जिनशासन के उत्तरदायित्वपूर्ण महान् तृतीय आचार्यपद पर प्रतिष्ठित कर दिया ।।
२-आचार्य श्री हरिभद्रपूरि का महत्त्वपूर्ण शास्त्रग्रथन माचार्य श्री हरिभद्रसूरि को केवल अपने आत्मा का स्थान और अकेले मोक्ष पद पर आरूढ होना ही अभीष्ट नहीं था, अपितु उनके मन में अनन्त संसारी जीव को पाप, अज्ञान
और दुःख से मुक्त करने को महती करुणा भी तरङ्गत हो रही थी । वह चाहते थे कि समो भव्य जीव अपने आन्तरशत्रुओं पर विजय प्राप्त करें, उनका मिथ्यातत्त्वमार्ग का कदाग्रह दूर हो, अपसिद्धान्त पर चिरकाल से जमी हुई उनकी आस्था समान हो, तथा जनता के बीच तप्रमाणसम्मत यथार्थ तत्वज्ञान का प्रकाश फैले, श्रेष्ठ शास्त्रीय सिद्धान्त का व्यापक प्रचार हो, जनजीवन में पवित्रता और चरित्रसम्पन्नता का स्वर्णमय अवतरण हो। उनकी इस भरवनाने उम्हें नवीन तर्कपुष्ट प्रामाणिक ग्रन्थों को रचना के लिये प्रेरित किया । वह समय ऐसा था अब द्वादशाक जिनागम में बाहरवा अङ्ग 'दृष्टिबाद' केवल मुख पाठ के बल पर जीवित था किन्तु स्मरणशक्ति के हास से वह भी नष्ट होता चला था । केवल एकर्व के कुछ अंश बच गये थे । यदि उन बचे हुये अंश को संकलित करने का महत्तम कार्य श्री हरिभद्रसूरि ने न किया होता तो जैन शासन के कई पदार्थ जो अब उपलब्ध है वे उपलब्ध न हो सकते । फलतः माज हम मी यह कह सकते हैं कि "हा प्रणाहा कह हुन्ता, जद न हुन्ती हरिभदो।"
विषय और कपाय की आंग्नज्वाला में जलते हुए प्राणियों पर शम और वैराग्य की शीतल जलधारा की वर्षा के लिये आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने 'सराइचकहा' नामक संवेगवैराग्य के उछलते हुए तरङ्गों से भरपा एक ऐमा अन्य लिखा जो प्राकृ भाषा के साहित्य में अपना प्रतिस्पर्धी नहीं रखता और जिसे निर्विवादरूप से प्राकृतभाया के भण्डागार की सर्वोच्च निधि कहा जा सकता है | बाळ जीवों के ज्ञानचक्षु के उन्मोलनार्थ उन्होंने 'पइदर्शनसमुच्चय 'अनेकान्तवादप्रवेश' आदि कतियय लघु काय ग्रन्थी' को रचना को जिनसे भन्यान्य दर्शनों के