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________________ winnin शास्त्रवासिमुच्चय तदेवं 'धर्म एव युक्ताऽऽस्था' इति समर्थितम् । तस्माद मुक्त्युत्पत्तिप्रकारवारश्यवक्तव्योऽपि प्रतिबन्धकशिष्यजिज्ञासासस्वाद नेदानी वक्ष्यते, पुरस्तादेव चावसरसंगत्या वक्ष्यत इत्याह-'तस्माच्च'ति-. मूलम्-तस्माच्च जायते मुकियेथा मृत्यादिवर्जिता । तथोपरिष्टाद वक्ष्यामः सम्यग् शास्त्रानुसारतः ॥२८॥ अनुसक्त होने के कारण ही दुःस्वरूप नहीं होना अपितु स्वरूप से भी दुःखात्मक होता है, और यह इसलिये कि सुख की उत्पत्ति जिस उदभूतसत्त्वगुण से होती है उसमें अनुभूतरजोगुण और तमोगुण का भी मिश्रण होता है । अतः उद्भूतसवगुण से सुख की उत्पत्ति के साथ अनुभूत रज से दुःख और अनुभूत तम से विषाद की भी उत्पत्ति होती है, और जैसे परख रज तथा तम आपस में मिले जुले होते हैं किसी का पृथक् अस्तित्व नहीं होता उसी प्रकार उनसे उत्पन्न होने वाले सुख, दुःख और विषाद भी परस्पर में मिले जुले होते हैं, उनमें भी किसी का पृथक् अस्तित्व नहीं होता। दुसरे शब्दो में इसे इस प्रकार का पा सकता है कि सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों में जब कोई पक गुण उद्रिक्त हो कर अन्य दो गुणों को इवा कर अपने कार्य को उत्पन्न करता है, तब उस कार्य के प्रति केवल वह उद्विक्त गुण ही कारण नहीं होता किन्तु उद्रिक्तगुण द्वारा दबाये गये अन्य दो गुण भी उसके कारण होते हैं, फलतः उद्रिक्तसत्त्व से उत्पन्न होनेवाला सुख अनुद्रिक्त रज और तम से भी उत्पन्न होने के कारण दुःख और विषाद उभयात्मक होता है। इस प्रकार प्रत्येक सांसारिक सुख दुःखा. नुसक्त होने से दुःस्त्रात्मक होने के साथ ही दुःन के कारण से उत्पन्न होने के कारण स्वरूप से भी दुःखात्मक होता है। यदि यह कहा जाय कि 'सुख, दुःख और मोह का सह अनुभव न होने से उनमें यो मानना आवश्यक है, अतः इन चिरोधीभावों का पक काल में उदय या उनमें परस्पर ता मानना असंगत है'-तो यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि उन भावों का समानरूप में हो विरोध होता है विषमरूप में नहीं । अतः उक्त तीनों भाव उद्भूत अमदभत रुप में न तो सह उत्पन्न ही हो सकते हैं, और न उनमें परस्पर तादात्म्य ही हो सकता है। पर अनुत दुख और मोहके साथ उद्भूत सुख के उत्पन्न होने में अथवा सुख में अनूभूत दुःख और मोह का तादात्म्य होने में कोई विरोध या असंगति नहीं है। सूत्र के "गुणवृत्तिविरोधाच्च' इस अंश से यही बात कही गई है जिसका स्पष्ट अर्थ यह है कि समवृत्तिक गुणों में हो विरोध होता है, विषमवृतिक गुणों में विरोध नहीं होता। अतः एक काल में एक ही धर्म के उद्भत रूप में सुख, दुःख और मोहरूप होने में कोई विरोध नहीं है। उक्त रीति से इस बात का समर्थन किया गया कि शुरु धर्म मुक्ति का साधन है अतः धर्म में ही प्रास्था रखना उचित है । इस समर्थन के अनन्तर मुक्ति की उत्पत्ति किस प्रकार होती है इस बात का ही प्रतिपावन करना उचित है, किन्तु प्रथकार ने पेसा नहीं किया है, व्याख्याकार के अनुसार इसका कारण यह है कि मुक्ति के साधन
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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