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________________ ९५ स्था० का टीका व हिं. वि. सुख भी दुःखरूप ही है, इस सूत्र में सांसारिक विषयों को चार प्रकार से दुखरूप बताया है . परिणाम से, तापसे, संस्कार से तथा स्वरूप से ।। (परिणाम से विषयों की दुःस्वरूपता) (१) परिणाम से दुःसरूपता का आशय है कि संसार के जिन विषयों से मनुष्य को सुख की अनुभूति होती है उनमें मनुष्य का राग हो जाता है जो विषयसुखानुभव से निरन्तर उपचित होता रहता है और जिसके वशीभूत हो कर मनुष्य इस बात की चेष्टा करने लगता है कि जिन विषयों से उसे सुख का अनुभव हुआ है वे उसे सदा मुलभ रहे, तथा उन जैसे नये नये विषयों पर उत्तरोत्तर उसका अधिकार होता चले किन्तु जब वे विषय नष्ट होने लगते हैं, या उसके अधिकार से निकलने लगते है, अथवा उस प्रकार के नये विषयों की प्राप्ति में बाधायें सड़ी होने लगती हैं तब उसे दुस्सह दुःख की अनुभूति होती है , इस प्रकार संसार के सुखद विषय भी परिणाम में तुम्न में पर्यवसित हो जाते हैं, परिणाम में दुःख में पर्यवसित होना हो विषयों की परिणामदुःखता है। (ताप से विषयों की दुखरूपता) (२) ताप से विषयों की दुःखरुपता का आशय यह है कि संसार के जिन विषयों के सम्पर्क से मनुष्य को दुःख का अनुभव होता हैं उनके प्रति तथा संसार के प्रिय विषयों की प्राप्ति में जो बाधक होते हैं उनके प्रति पत्र संसार के दुःखद विषयों तथा प्रिय विषयों की प्राप्ति में उत्पन्न होने वाली बाधाओं के जो कारण होते हैं उनके प्रति मनुष्य के मन में रोष का उदय होता है जिससे उसका वर्तमान सुखानुभव भी दुष्प्रभावित हो जाता है। फलतः पसे विषयों से वह अपना गला छुड़ाने का प्रयत्न करता है और जब वह अपने इस प्रयत्न में असफल होता है तब उसे तीव ताप की अनुभूति होती है. इस प्रकार संसार के विषय तापका जनक होने से दुःखात्मक बन जाते हैं, सांसारिक विषयों की यह तापजनकता ही उनकी प्तापात्रता है। (संस्कार से विषयों को दुःखरूपता) (a) विषयों की संस्कारदुःखता का अभिप्राय यह है कि मनुष्य को जय सांसारिक विषयों से सुख या दुम का अनुभव होता है तब उस अनुभव से मनुष्य के मन में हर प्रकार का संस्कार उत्पन्न हो जाता है कि संसार के अमुक विषय सुख के तथा अमुक विषय दुःख के उत्पादक है। इस संस्कार से कुछ विषयों के प्रति उले राग और कुछ के प्रति उसे द्वेष उत्पन्न होता है। फिर वह राग के विषयों को प्राप्त करने और द्वेष के विषयों को दूर करने के लिये मन वचन और शरीर से अनेक प्रकार की चेष्टायें करता है, इन चेष्टाओं से पुण्य पापको उत्पत्ति होती है जो मनुष्य को पुनर्जन्म लेने और उसके फलस्वरूप अनेक प्रकार के सांसारिक दुःख में पउने को उसे विवश करते हैं। इस प्रकार संस्कार द्वारा विषयों का दुःखदायी दोमा ही उनकी संस्कारदुःखता है। (४) इस वर्णन से यह स्पष्ट है कि संसारका सुख तीनोंकाल में दुख ले अनुसक्स होता है और इसी कारण वह पुरा का पुग दुःखान्मक होता है। विषयसुख दुप ने
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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