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________________ १४ शास्त्रवातासमुच्चय पर्यवसितमाह 'मत' इति-- मूलम्-अतस्तत्रैव युक्ताऽऽस्था यदि सम्यङ् निरूप्यते । संसारे सर्वमेवान्यद् दर्शितं दुःख कारणम् ॥२७॥ मतः पूर्व पक्षोक्तयुक्तिनिरासात , तत्रैव-धर्म एवं आस्था युक्ता, यदि सम्यग= आगमोपपत्यानुसारेण, निरूप्यते-विचार्य ते, प्रतिपक्षप्रवृत्तिनिरासायोक्तमेव स्मारयतिसंसारे सर्वमेवान्यद् -धर्मातिरिक्तं, दुःख कारणे केवलदुःखमयं दर्शितम्-"अनित्यः प्रियसंयोगः"....(का०१२) इत्यादिना । __ अत्रेदं पतन्जलिसूत्रम्-"परिणामतापसंस्कारदुःखैगुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्व विवेकिनः" (पात २-१५) इति । राग एव हि पुमुर्वद्भूतः सन् विषयप्राप्त्या मुखं परिणमते । तस्य च प्रतिक्षणं प्रवर्धमानत्वेन स्त्रविषयाऽप्राप्तिनिबन्धनदुःखस्य दुष्परिहारत्वात् परिणामदुःखता । तथा, सुखमनुभवन् दुःखसाधनानि द्वेष्टि, तदपरिहारक्षमश्च मुह्यतीति तापदुःखता । तथा वर्तमानसुखानुभवः स्वविनाशकाले संस्कारमाधत्ते, स च मुखस्मरणं, तच्च राग, स च मन:कायवचनप्रवृत्ति, सा च पुण्यापुण्यकर्माशयौ, तौ च जन्मादो नि, इति संस्कारदुःखता एवं कालत्रयेऽपि सुखस्प दुःखानपङ्गाद दुखरूपता सिद्धा। उद्भूतसत्त्वकार्यत्वेऽपि सुखस्थाऽनुदभूतरजस्तमाकार्यत्वात स्वभावतोऽपि दुःखविषादरूपता, समवृत्तिकानामेव हि गुणानां युगपद्विरोधः, न तु विषमवृत्तिकानाम्, इत्येकदोद्भूताऽनुद्भूततया न सुखदुःखमोहविरोधः ॥२७॥ सन पाता है वह संज्ञा अर्थ में 'क' प्रत्यय करने से अस्तित्व में आया है । अतः 'संज्ञानयोगक' का अर्थ है संज्ञामयोगनामक' । संक्षानयोग का अर्थ है सम्यग्ज्ञानरूप योग रक्षा (विवेकीजनों के लिये धर्म से भिन्न सब दुखाय है।) २७ घी कारिका में पूर्व के पूरे कथन का मिश्कर्ष बताया जा रहा है-- यदि आगम और युक्ति के अनुसार मोक्ष के कारण का घियार किया जाय तो मोक्ष के हेतु के रूप में धर्म में हो आस्था करना उचित प्रतीत होता है, क्योंकि पूर्व पक्ष में धर्म के विपरीत कही गयी समस्त युक्तियों का निषेध किया जा चुका है। कारिका के उत्तरार्ध में प्रतिकूलपक्ष की प्रवृत्ति के निराकरणार्थ पूर्वोक्त का स्मरण कराते हुये कहा गया है कि संसार में धर्म से भिन्न जो कुछ है वह सब दुःख का कारण है. पूर्ण रूप से दुःखमय है। यह तथ्य 'अनित्यः प्रियसयोगः' इत्यादि प्रलोक द्वारा प्रतिपादित किया गया है ॥२६॥ इस संदर्भ में पतञ्जलि का यह सूत्र ध्यान देने योग्य है कि “परिणाम-ताप संस्कार - दुखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःस्रमेव सर्व विवेकिनः” (यो. सू. २-१५), अर्थात् विकीजनों की रष्टि से संसार का सब कुछ यहाँ तक कि सांसारिक विषयों से उपलब्ध होने वाला
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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