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________________ स्था. क. टीका बहि० वि० ९६धक 'तस्माद्'-धर्मात् च यथा येन प्रकारेण, मृति:-आयुःक्षयः, आदिना रोगशोकादिपरिग्रहः, तद्वर्जिता-तद्रहिता,मुक्ति:-निवृतिः, यया भवति तथोपरिष्टाद् अग्रे. सम्यम् अविरोधेन, शास्त्रानुसारतः शास्त्रतात्पर्य परिगृह्य वक्ष्यामः ॥२८॥ इद्मनी तु प्रसङ्गसङ्गत्या शास्त्रपरीक्षेत्र क्रियते इत्याह मूलम- इदानी त समान शास्त्रसम्यक्त्वमुच्यते । ___कुवादियुक्त्यपव्याख्यानिरासेनाऽविशेषतः ॥२९॥ इदानीं तु समासेनले पेण, विस्तारतस्तत्करणे त्वायुःपर्यवसानाद, शास्त्रस्य सम्यक् प्रामाण्याऽप्रामाण्यविभाग उच्यते । कथम् ? इत्याह वादिना चार्वाकमीमांसकादीनां युक्तयश्चापव्याख्याश्च कुवादियुत्रस्यपव्याख्याः, तासां निरासेन बलवत्प्रमाणवाध्यस्वभ्रान्तिमूलकत्योपदर्शनेन, अविरोषतः तदापादितविरोधाऽऽङ्कानिरासादिति भावः १२९॥ भूतधर्म की चर्चा हो जाने के पश्चात् शिष्य को यह जिनामा होता है कि इस विषय में किस शास्त्र को प्रमाण माना जाय और किस शास्त्र को प्रमाण न माना जाय' ' अतः जप तक इस जिज्ञासा को शान्त न कर दिया जाय तथ तक किसी अन्य विषय का प्रतिपादन समीचीन नहीं हो सकता, क्योंकि जिज्ञासा के अनुसार किये जाने वाला वस्तु प्रतिपादन ही संगतप्रतिपादन माना जाता है। यह कहना कि-"मुक्ति के साधनभूत धर्म का प्रतिपादन करने के बाद मुक्ति को उत्पत्ति के प्रकार का प्रतिपादन ही अवसरप्राप्त है"-ठीक नहीं है, क्योंकि एक वस्तु के प्रतिपादन पश्चात् दुसी घस्तु के अवश्यवक्ता होने मात्र से ही दूसरी वस्तु का प्रतिपादन अयसरप्राप्त नहीं माना झा सकता, अपश्यवक्तव्य होने पर भी उपके प्रति पादन का अयसर तभी मान्य हो सकता है जब किसा अन्य वस्तु की निशामा न हो क्योंकि विरोधिनी जिज्ञासा के अभाव में हो अवक्तव्य को अबसरसंगति माना गया है। प्रस्तुन में शिष्य को उक्त विरोधिनी जिज्ञासा होने के कारण मुली सात्ति के प्रकार का प्रतिपादन करने में उपयुक अवमासंगति का अभाव है, अतः उपका प्रतिपादन बाद में किया जायगा। कारिका २८ में यही बात कही गई है-रोग, शोक, जम्म जरा. मुत्यु आदि समस्त दुखकारणों से रहित मुक्ति जिस प्रकार धर्म द्वारा प्राप्त की आती है उसे शास्त्रतात्पर्य के आधार पर अविरुद्ध रीति से आगे बताया जायगा ॥२८॥ प समय तो प्रसङ्गति के अनुरोध में शास्त्र के प्रामाण्य अशमाण्य की ही परीक्षा करनी है यह आशय २२ थी कारिका से बना रहे हैं 'शास्त्र के सम्यक्त्व का अर्थात् इसके प्रामाण्य-अप्रामाण्य का प्रतिपादन यदि विस्तार से किया जाय नो उसमें मनुष्य को पूरो आयु ही समाप्त हो जायगी. वह और कोई बात न जान ही सकेगा, और न कुछ कर हो सकेगा। अनः संक्षेत्र से ही शास्त्र के प्रामाण्य अप्रमापय का प्रतिपादन किया जापमा। प्रतिपादन की विधि यह होगो कि चार्वाक मोमांसक मादि समस्त कुवादियों ने भौतिक भौर माध्यामिक विचारों के क्षेत्र में जिन युक्तियों का प्रयोग किया है तथा पदार्थों की जो अनर्गल व्यास्यायें का है उन सभी को, प्रबल प्रमा से बाधित और भ्रमभूलक बताया जायगा । साथ ही उन बुवादियों ने जैन मान्यताओं के सम्बन्ध में जो विरोध और धर्ममात की शङ्का उपस्थित को है उनका प्रतिकार भी किया जायगा |
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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