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________________ ७ स्था०० टीका.बि. तत्रादौ चावाकयुक्तीनिराचिकीर्षुस्तन्मतोपन्यासमाह-'पृथिव्यादा ति । मूलम्-पृश्चिन्यादिमहाभूतमात्रकार्यमिदं जगत् । न चारमा, दृष्टसद्भावं मन्यन्ते भूतवादिनः ॥३०॥ इदं-प्रत्यक्षोपलभ्यमान, जगत चराचरम् , पृथिव्यादीनि पृथिव्यप्तेजोवायुलक्षणानि गामि चत्वारि महाभूतानि, तन्मात्रकार्यम् । मात्रपदेनाकाशादिव्यवच्छेदः । नन्वात्मन एव न तयात्वम् , इत्यत आइ-न चात्मा शरीरातिरिक्तोऽहम्प्रत्ययालम्बनमस्ति"बैतन्पविशिष्टः कायः पुरुषः' इति वचनात् । पर्व भूतवादिन-लोकायतिकाः, दृष्टसद्भावप्रत्यक्षवस्तुन एव पारमार्थिकत्वं मन्यन्ते, नादृष्टस्य, तत्र मानाभावात् । (निराकरण करने के लिये चार्वाकमत का उपन्यास) कुवादियों के मतों के खण्डन का उपक्रम करते हुये सर्वप्रथम चार्वाक की युक्तियों का निराकरण करने के अभिप्राय से ३०धी कारिका में चाक का मत प्रस्तुत किया गया है, कारिका का अर्थ हस प्रकार है यह संसार, जिसका हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं, जिसमें सभी चर-चलने फिरने वाले पशु, पक्षी, मनुष्य सादि सभी प्रकार के प्राणी, तथा सभी अचर-घलने फिरने में अशक्त-जन्म से विनाश तक एक ही स्थान में स्थित रहने वाले पहार आदि सभी जड पदार्थ अन्तर्भूत है, वे सब पृषिधी, जल, तेज और वायु इन चार महाभूतो से ही उत्पन्न होते है, इन चारों से भिन्न आकाश आदि किसी भी पदार्थ का इस संसार की उत्पत्ति में कोई योगदान नहीं है, क्योंकि उक्त चारों से भिन्न किसी अन्य कारणतत्त्व का कोई अस्तित्व ही नहीं है। यपि यह कहा जाय कि-"संसार में तो आत्मा का भी अस्तित्थ है, और वह पृथिवी वादि भूतों से उत्पन्न नहीं होता, अपितु अपने शुभ-अशुभ कर्मों से संसार की उत्पत्ति में योगदान करता है क्योंकि आत्मा को उसके शुभ-अशुभ कर्मों का फल देने के लिये ही संसार की उत्पत्ति होती है । अतः यह कहना कि 'सारा संसार पृथियो आदि बार मतों से ही उत्पन्न होता है। उन चारों से अन्य किसी दूसरे कारण का संसार की उत्पत्ति में कोई योगदान नहीं होता-थसंगत है,"-तो यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि 'अहम् में इस प्रकार को प्रतीति के विषयभूत वस्तु को ही आत्मा माना जाता है और शरीर को छोड अन्य कोई पदार्य उस प्रवीति का विषय नहीं होता, क्योंकि संसार का प्रत्येक मनुष्य अपने शरीर को ही 'अहं' के रूप में समशता है । अतः मनुष्य का शरीर ही उसकी मात्मा है और वह स्पष्टरूप से पृथिवी आदि भूतों से। उत्पन्न होता है। इसीलिये चार्वाक का यह कथन है कि-'चैतन्य से युक्त शरीर हो पुरुष है'। चार्वाक और उनके अनुयायी भूतवादी है, पृथिवी आदि चार भूतों और उनसे उत्पन्न होने वाले पदार्थों का ही अस्तित्व मानते हैं। वे लोकायतिक कहे जाते हैं जो लोक में शायत, संसार के आपामर अमों तक को अनुभूत होता है, उसे ही शा. वा. १३
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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