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शास्त्रवासिमुच्चय-स्तषक १-*लो• ३० महानुमानं तत्र मानम्, व्यभिचारिसाधारण्येन तस्याऽप्रमाणत्वात् । वयादिसम्भावनयैव तत्र प्रवृत्त्युपपत्तेः। अगृहीताऽसंसर्गकवाचाविस्मृतिरूपायां सम्भावनायामसद्विषयिण्यां परमार्थसत्स्वलक्षणविषयविषयकत्यरूपसंवादोऽपि न सम्भवतीति चेत् ! न, अध्यक्षमूलकविकल्पविषयविषयकत्वरूपसंवादस्य तेत्राऽक्षत्वात् । तादृशसंवादस्य सद्विषयकत्यरूपप्रामाण्याऽसहचारात् कथं ततस्तदभिमानः । इति चेत् ? सत्यम्, तथाप्यध्यक्षमूलकाध्यक्षान्तरसाधारणस्याध्यक्षमूलकविषयविषयकत्वलक्षणसंवादस्योक्तप्रामाण्यसहचारान् । धे स्थीकार करते है। जो सर्वसामान्यजनों के अनुभव से पर है, संसार में जिसे कोई प्रत्यक्ष नहीं देख सकता पैसे किसी पदार्थ का अस्तित्व उन्हें मान्य नहीं है। वे प्रत्यक्ष र पस्तु को ही सत्य मानते हैं। जो अष्ट है, कभी किसी को दिखाई नहीं देता, उसे थे इसलिये मानने को तैयार नहीं होते कि वैसे पदार्थ के अस्तित्व में कोई प्रमाण नहीं होता।
(अनुमानप्रामाण्य में विवाद का आरम्भ) आत्मा के अस्तित्व में 'अनुमान प्रमाण है, यह नहीं कहा जा सकता; क्योंकि अनुमान साध्य का व्यभिचारी होने से प्रमाण ही नहीं हो सकता। कहने का आशय यह है कि जो लोग मकान को प्रमाला मानते हैं, बनके समानुसार वह हेतु अनुमान प्रमाण होता है, जिसमें साध्य की व्याप्ति का ज्ञान हो । साध्य की ज्याप्ति का अर्थ है 'साध्यान्यथानुपपन्नत्व-साध्य के विना न घटना, साध्यशून्य स्थान में न रहना,' जैसे धूम से जब यति का अनुमान किया जाता है तब अनुमान से पूर्व यह शान अपेक्षित होता है कि धूम पति से व्याप्त है अर्थात् धूम घहिशून्यजलाशय आदि स्थानों में नहीं रहता । इस मान के फलस्वरूप यह निश्चय होता है कि जब धूम पनि यस्थान में नहीं रहता तो यह निर्विवादरूप से मानना होगा कि जहां धूम है वहां दद्वि अवश्य है, इस प्रकार धूम में पति को व्याप्ति का शान होने के कारण धूम से पति का अनु मान किया जाता है। फलतः ति के व्याप्यरूप में शात धम घति के अस्तित्व में अनुमान रूप प्रमाण होता है।
अनुभव को प्रमाण न मानने वाले बार्शक आदि का इसके विरुद्ध यह तर्क है किकिसी हेतु से किसी साध्य का अनुमान करने के लिये मुख्यरूप से दो शान की अपेक्षा होती है, पक यह है कि 'अमुक हेतु अमुक स्थान में है, दूसरा यह कि 'वह अमुक हेतु अमुकसाध्य का व्याप्य है। यदि यह दोनों शान यथार्थ होंगे तो इनके आधार पर हेतु से साध्य का ज्ञान भी यथार्थ होगा। किन्तु यदि इन शानों में कोई भयथार्थ होगा तो उनके आधार पर होने वाला अनुमान भी अयथार्थ होगा। यह देखा जाता है कि 31 दोनों हान सर्वदा नहीं होते। क्योंकि कभी कभी साध्य के व्यभि. पारी को भी साध्य का व्याप्य समझ लिया जाता है और कभी कमो हेतुशून्य स्थान में भी हेतु का ज्ञान होता है, और जब इस प्रकार के शान हो जाते है नब हेतु साध्य का १. 'विकल्पविषयकत्व.' इति पूर्वमुदितानौ । २-'तत्रा...संवादस्प' इयान् पाठः पूर्वमुद्रिते नास्ति ।