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शास्त्रपातासमुच्चय-सबक १ प्रलो० ७. स्तमस्त्वविषयतावच्छिन्नत्वेऽभापत्यविषयताऽवच्छिमत्वनियमात्, तपस्त्वस्य तेजोऽभाव
सतिरिका अभावाममय गौरवाव, तमसो द्रव्यत्वस्यैव युक्तत्वात् इति विक।
किं च, नालोकप्रतियोगिकाभावमा समोव्यवहारविषयः, एकालोकवस्यप्याऽऽलोकतान्तराऽभावान् । न वाऽऽलोकसामान्याभाषा, आलोकवत्यपि सम्पन्धान्तरण तदभावाच । न च संयोगसम्बन्धावच्चिमतदभाव, आलोकेऽपि तत्सवात् । नाप्यालोकान्पत्तित्वविशिष्वदभावः, अन्धकारेऽन्धकारापोः ।।
न च 'आलोकान्यद्रव्यऋतित्वविशिष्टः स' तथा, त्वदात्मन्यपि तत्प्रसङ्गात् । न व कदाचिदालोकसंसर्गमित्वविशिष्टः स सथा, कदाऽप्यालोकसंसों पत्र नास्ति
मिन्धकार को द्रव्य मानना ही उचित है। दूसरी बात यह है कि उक्त कार्यतापछेदक की कुक्षि में प्रभावविषयता में अमाजस्व विषयावपि का प्रवेश गौरयग्रस्त होने से स्याज्य भी है। इसी प्रकार सम में प्रतियोगितासम्बन्ध से किसी का मान न होने से समाप्रत्यक्ष की तमोनिष्टरिषयता वक्त प्रकारता से मनभिन्न भी है । अततमःप्रत्यक्ष के सेजस्वाक्षिणानविषयकवान * कार्यतावच्छेदक से आक्रान्त होने के कारण तेज के महान की पशा में उसकी उत्पत्ति नहीं होमो बाहिये, किन्तु होती है, इस लिये तम को समाषरूप न मान कर म्यरूप मानना की युक्तिसंगत है।
[लोकमतियोगिकाभावमा तमोव्यवहारविषय नहीं है] तम को तेजोऽभाषरूप मानने में पक याचा यह भी है कि पेसे तेजोऽमाम का निधन नहीं हो सकता, जिसे तम छटा जा सके । जैसे, यदि भालोकप्रतियोगिक प्रभाव को नम कदा मायगा, तब पक आलोक से युक्त स्थान में भी भालोकारवर का प्रभाष होने से यहां तमःप्रतीति पर्व तमोच्यवहार की प्राप्ति होगी। मालोकसामायामाप को यदि सम का मायगा, तो आलोकसंयुकदेश में संयोगसम्बन्ध से मालो. बसामान्याभाव न होने पर भी समवायसम्बन्ध से पालोकसामाग्याभाष होने के कारण पहा भी वम के प्रत्यक्ष पपं व्यवहार की भापति होगी।
संयोगसम्बन्ध से आलोकसामान्यामाष को यदि तम कहा जायगा, तो मा पक हो माको वहां उस स्थल में मालोकसामान्याभाष न होमे पर भी उस भालोक में कोई मी भालोक न होने से संयोगसम्पन्ध से आलोकलामान्याभाव, भता उस भालोक में तम के प्रत्यक्ष पर्व तम के व्यवहार की आपत्ति होगी । यदि मालोकापवृत्तियषिशिएमालोकसामान्याभाष को तम कहा जायगा तो आलोक में मायोकामाय भालोकवृत्तित्वविशिष्ट होने पर भो मालोकाम्पत्तित्वषिशिर सालोकसामापामाव के रहने से माझोक में सो सम के प्रत्यक्षावि की भापति न क्षेगी, पर अन्धकार में उक्त आलोकसामान्यामाब के रामे से 'अन्धकारमयकार: अग्धकार में भी अग्यकार इस प्रकार के व्यवहार को आपत्ति का वारण न हो सकेगा।
१. गतिवद्' इति पाठान्तरम् ।