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________________ स्था क ीका च.िलि. २२९ वापि पोरनरकादो तकनगाव, अवतमसे यालाओं का[भाषा]भाषाञ्च । किं चै. तारघटकाप्रतिसन्धानेऽपि समस्त्वप्रसिसन्धाना घटत्यवद् मातिरूपमेतद् न्याग्यम् । पतेन 'याबदाछोकसरपे नान्धकारख्यवहारस्तावन्निष्ठवहत्यविशेषावच्छिन्नमतियोगितामाभावस्तमः' इत्यमास्तम्, महत्वस्प पुद्धिविशेषादिना विनिगमनाविरहाच्च । भखण्णाभाव एव तम; 'अखण्ड पा तमस्त्वम्' इति कल्पयतस्यतिरिक्ततमोट्रष्यफल्पने किंक्षीयते । अपि च तमसोऽभावत्वे उत्कर्षाऽपकर्षाऽसम्भवाद् अन्तमसावतमसादिविशेषो न स्यात् । न च महाभूतानभिभूतरूपरदयारत्तमोभावोऽन्धतमसं, ऋतिपयतदभारश्चावतमस, इत्पादिविभागो पारपः दिवा प्रकष्टालोकेऽपि सत्सवात् । मालोकान्यदश्यपतित्वविशिष्ट भागेकामाव तमोष्यवहार का विषय नही है ___ यदि आलोकाग्यद्रज्यवृत्तियविशिष्ट भालोकसामान्यभाष को नम करा जायगा, दो सम को भमायास्मक मानने वाले यादो के मा में नम के प्रधान होने से जम में उक्त भापत्ति का कारण तो हो जायगा पर वादी के भास्मा में नम को भापति लगेगी, 'वावी छ आरमा में भो मधेरा है इस प्रकार के व्ययहार की आपत्ति होगी। जहां कभी बालोक का सम्मान होता हो, Evion शाके की मालोकसामान्यभाष को यदि तम माने तो पेला सम मामने पर इस भापति का परिहार तो हो सकता है पर घार नरक पाधि, कहां कभी भी मालोक नहीं होना यहां मो शास्त्रों में सम का अस्तिष रताया गया, किन्तु भव पह मसंगस हो जायगा । पयं मयतमन-मनमायकारयुक स्थाम में यत्किचित् भालोक रहने के कारण भासोकलामाम्पाभाष के न रहने से यहां तमप्रतीसि की अनुपपति होगी । पर्ष उक्त प्रकार के आलोकाभाष को नम मानने पर तमस्य के घटक उपयुक्त पदार्थों कि महामशा में तमस्य का प्रत्यक्षात न हो सकेगा, किन्नु होता है मतः घर के समान तमस्त्य को ट्यगत जाति मामना बी न्यायसंगत है। नियतसल्याक आलोक का अभाव अन्धकार नहीं है] जो लोग यह मानते है कि-"जितने मालोक के होने पर भन्धकार होने का व्यवहार नहीं होता, उतने मालोको का सभाष तम है, और उसका स्वकर ताव आलोक में रहने वाला जो पापविशेष-तपशिलानप्रतियोगिताक अभाय । बहुवषिशेष स भभाष का पर्याप्तिमिम्मस्वरूपसम्मम्घ से प्रतियोगितावादक है, न की पानिलम्बन्ध से, अतः उस बहुत्व के आनयभूत पक आलोक के रहने पर भी उक्त अभाय सम्भव न होने से उस प्रकार के पक भालोकके रहते तमप्रतीनि की धापत्ति नहीं हो सकती।"-- या कल्पना भी उचित नहीं है, क्योकि बहुस्वरूप से मालोक की महानदशा में भो तम को प्रतीसि होता है, किन्तु उक्त मभाघ को तम मानने पर उक्त पशा में बहस हो सकेगी। इसके अतिरिक्त यह भी दोष है-उक्त भभाषके प्रतियोगितायस्क के विषय में इस प्रकार का विभिगमनाविरह होगा कि बटुव को प्रतियोगिताबावक माना जाय पा र मालोको को बिषय करने वाले मुशिविशेष को प्रतियोगितामहेवक माना
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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