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स्या० का टीका घहि. वि.
न चोपादनेनानुभूतस्योपादेयेन स्मरणादुपपत्तिः, छिन्नकरादेरनुपादानत्वेन छिन्नकरादेः पूर्वानुभूतास्मरणप्रसङ्गात् । न च 'करेण यदनुभूतं तत् खण्डशरीरोपदानापरकिश्चिदवयवेनाप्यनुभूतमः इति तद्गतवासनासंक्रमाद नानपपत्तिरिति बाध्यम; प्रत्यवयवगतविज्ञानबहुत्वेऽनेकपरामर्शप्रसङ्गाना यावदवयवेषु व्यासज्यवृत्तित्वे च चैतन्यस्य यत्किञ्चिदाश्रयविनाशे बहुत्वसंख्याया इव विनाशासनात्। पूर्वचैतन्यविरहे उत्तरचैतन्यानुत्पादात्. परमाणुगतत्वे तद्गतरूपादिवच्चैतन्यातीन्द्रियत्वप्रसङ्गाच्च । न तो शन्द का संकेतमान होता है और न साधनता के प्रत्यवान के लिये अपेक्षित अन्वय-व्यतिरेक का हो शान होता है, अतः उक्त ज्ञान को अनुमितिरूप माना जाता है। दुग्धपान में इष्टसाधनता की इस अनुमिति से उसके कारणभूत इष्टसाधनता के व्याप्तिशान का अनुमान किया जाता है। यह व्याप्तिशान भी अनुभवात्मक नहीं माना जा सकता, क्योंकि बालक को इस ध्याप्ति के अनुभव का कोई साधन सुम्भ नहीं होता। अतः उसे स्मरणरूर ही मानना पडता है । इष्टसाधनता की व्याप्ति के इस स्मरण से उसके कारणभूत इष्टसाधनता की व्याप्ति के अनुभव का अनुमान होता है। यह अनुभव इस जन्म में बालक को सम्भव न होने से बालक के पूर्वजन्म का अनुमापक होता है । इस प्रकार बालक के पूर्वजन्म को अनुमापक इस प्रक्रिया से तथा वीतराग का जम्म उपलब्ध न होने से फलित होने वाले-'जो प्राणी जन्म ग्रहण करता है वह रागवान ही होता है, इस न्याय से जन्मान्तरानुगामी मात्मा की सिद्धि होती है।
(वर्तमान जन्म में अनुभूत पदार्थ के स्मरण से आत्मसिद्धि) यस्तुस्थिति तो यह है कि-आत्मा की सिद्धि मात्र मातिस्मरण अर्थात् पूर्वजन्मों का स्मरण, किंघा नवजात बालक को दुग्धपान में इष्टसाधनता की व्याप्ति का स्मरण-इन जन्मान्तरीय अनुभवमूलक स्मरणों के ही अनुरोध से नहीं होती, अपितु धर्तमानजन्म के अनुभवमूलक स्मरणों के अनुरोध से भी होती है। कहने का आशय यह है कि शरीर से भिन्न नित्य आत्मा का अस्तित्व न मान कर यदि शरीर को ही चेतन माना जायगा, तो पर्तमानसन्म में ही बाल्यावस्था में अनुभूत विषय का युवावस्था में स्मरण न हो सकेगा, क्योंकि शरीरयैतन्यघादी के मत में अनुभव और स्मरण का उदय शरीर में ही माना जाता है। तो जैसे चैत्र में परस्पर भेद होने से चत्र द्वारा अनभत विषय का स्मरण मैत्र को नहीं होता, वैसे ही वाल्यावस्था और युवावस्था के शरीरो में भेद होने के कारण बालशरीर द्वारा अनुभूत विषय का स्मरपा युवाशरीर को न हो
केगा। यदि यह कहा जाय कि बाह्य शरीर और युवाशरीर एक ही है, क्योंकि बालशरीर और युवाशरीर के परिणाम भिन्न होते हैं। पालशरीर छोटा एवं पतला होता है, युवाशरीर लम्बा एवं घौडा होता है, अत: इस परिणाममे के कारण उसके आश्रयभूत शरीर में भी भेद मानना आवश्यक है, क्योंकि संसार के किसी भी एक दथ्य में दो परिमाणों का होना प्रामाणिक न होने से व्यरूप श्राश्रय में मेद माने बिना उसके परिमाणों में भेद मानना सम्भव नहीं है।