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________________ .................... शास्त्रवासिमुच्चय-स्तयक १ प्रलो०४१ 'बालकस्य स्तन्यपानप्रवृत्तिरिष्टसाधनताधीसाध्या । सा चानुमितिरूपा । सा च व्याप्त्यादिस्मृतिजन्या । व्याप्त्यादिस्मृतिश्च प्रग्भवीयानुभवसाध्याः इति "वीतरागजन्मादर्शन." न्यायाद् भवान्तरानुगाम्यात्मसिद्धिः' इत्यपरे वर्णयन्ति ।। वस्तुतः स्मरणान्तरान्यथाऽनुपपत्त्यापि लोकसिद्ध एवात्मा, शरोरस्य चैतन्ये बाल्येऽनुभूतस्य तारुण्येऽस्सरणप्रसङ्गात्, चैत्रेणानुभूतस्येव मैत्रेण, बालयुवभरीरयोर्भेदात् परिणामभेदे द्रव्यभेदावश्यकत्वात् ।। पूर्वजन्म में देखा-सुना था, यह दुभा 'अपाय' यानी निर्णय । उसको बराबर ण्याल में लिया जाप-यह हुई 'धारणा' । षही संस्कार है। इससे जातिस्मरण होता है, घ इसमें संस्कार कारणभूत हो हो गया इतना ही कि वह पूर्वभवीय नहीं लेकिन वर्तमानभवीय संस्कार। यहां अगर कोई कहे कि-'मातिस्मरण शान धैसे क्रमिक ईहादिचतुष्टय किये बिना ही उत्पन्न होता है'-तो यह ठीक नहीं, क्योंफि छमस्थपुरुष का उपयोग' अर्थात् मतिमान का पुरज नियमन अवरह-रहा-अपाय-धारणा के क्रमशः उत्पन्न होने से ही सम्पन्न होता है यह सिद्ध किया गया है। यदि कभी किसी को स्फुटरूप से सोधे अपाय भौर धारणा को उत्पत्ति होना प्रतीत होता हो तो वहाँ उसके पूर्व अधग्रह और ईदा की भी कल्पना कर लेनी चाहिये, उन शानों का उदय जो लक्षित नहीं होता वह अतिसत्वर उत्पत्तिरूपदोष के कारण ही नहीं होता, न कि उनकी अनुत्पत्ति के कारण होता है । मदनीय आचार्य श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य में इस बात को दो प्रकार के दृष्टांतो से स्पष्ट किया है । एक है-पक के उपर एक के कम से रखे हुये कमल के सौ पत्तों का सूत्री द्वारा वेध, और दूसरा है सूखी लम्बो शकुली का चपन । आशय यह है कि जहां अवग्रह, ईहा, अपाय और धारणा का उत्पत्ति क्रम नहीं लक्षित होता, वहाँ एक तो यह कल्पना की जा सकता है कि वे सभी कान उत्पन्न तो क्रम से ही होते हैं, पर उनमें कालव्यवधान इतना सूक्ष्म रहता है कि वह क्रम ठोक उसी प्रकार नहीं लक्षित हो पाता जैसे एक के उपर पक के क्रम से रखे कमल के सौ पत्तों के सूची से होने वाले वेध का क्रम नहीं लक्षित हो पाता । अथवा दूसरी कल्पना यह की जा सकतो है कि वे समी शाम मानो एक काल में ही उत्पन्न होते है वैसा प्रतीत होता है, वह भी ठीक उसो प्रकार जैसे सूखी-लम्बी शकुली के चपाते समय उसके रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, और शब्द का ज्ञान साथ ही उत्पन्न न होता हो। प्रन्थकार ने इस विषय में विशेष जानकारी प्राप्त करने के लिये अपने ज्ञानार्णव नामक ग्रन्थ को देखने का संकेत किया है। अन्य दार्शनिक पक दूसरे प्रकार से जन्मान्तरगामी आत्मा की सिद्धि करते हैं। उनका कहना है कि-नवजात बालक को माता का दुध पीते देख कर दूध पीने में उसकी प्रवृत्ति का अनुमान किया जाता है, अनुमान द्वारा सात प्रवृत्ति से उसके कारण के रूप में इप्रसाधनतासान का अनुमान किया जाता है। अनुमान द्वारा शात यह इप्रसाधनताज्ञान शब्दबोधात्मक या प्रत्यक्षात्मक नहीं हो सकता, क्योंकि उस समय बालकको
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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