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स्या० क० टीका च हिं० वि०
संस्कारश्चोत्कर्षतः पक्षष्टिसागरोपमस्थितिकमतिज्ञानभेदान्तःपाती समतिक्रान्तसंख्यातभवावगमस्वरूपमतिज्ञानविशषेजातिस्मरणार्थ न प्राग्यभवीय उपयुज्यते, किन्तु स्मृतिसामान्येऽनुभवव्यापाररक्षार्थ जातिस्मरणनियतेहादिचतुष्टयान्तर्भूत एव, तथाविध. क्रमानुविद्धस्यैव मस्थोपयोगस्य साधनात् । क्वचिदपायमात्रस्य क्वचन धारणामात्रस्य च रत्वेऽपि टोपाटयानुगलक्षणाद । गदाड भगवान् जिनभदगणिक्षमाश्रमणः....
उप्पलदलसयवेहे च दुब्बिहावत्तणेण परिहाइ ।
समयं व सुक्कसक्कुलिदसणेवि सयाणसुवलद्धी ।।[वि. भा. गा. २९९] ॥इति।। तवमत्रत्यं मत्कृत्तज्ञानार्णवादवसेयम् । अभिमुख होने मात्र से ही सम्पन्न हो जाता है। उसके लिये विशेष उद्घोषक की अपेक्षा नहीं होती।
(स्मृति में प्राम्भवीय संस्कार अनुपयुक्त है) संस्कार यह मतिज्ञान के अवग्रह-ईदा-अपाय-धारणा इन चार प्रकारों के अन्तर्गत एक प्रकार (संभवतः धारणास्वरूप) है-अतः भतिज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति, अनुत्तर विमान में ३३-३३ सागरोपमवर्ष की आयु वाले दो बार जन्म के हिसाब से, ६६ सागरोपम वर्ष काल तक की होने से संस्कार की भी उत्कृष्टकास्थिति उतमी ही हो सकती है । जब कि जातिकारण अर्थात् अतीत पूर्वजन्मों का स्मरणात्मक मतिज्ञान संख्यात भवों का भी हो सकता है, जिनमें तो संभव है ६६ सागरोपमों से कई अधिक काल भी लगा हो। इनके स्मरण में प्रारभवीय संस्कार तो ६६ सागरोपम के बाद नष्ट हो जाने से, प्राग्भवीय संस्कार कहां से उपयुक्त होगा ? इसलिये मानना होगा कि वैसे जाति स्मरण के लिये प्राग्भवीय संस्कार उपयोग में नहीं आता। ऐसा जातिस्मरण शान तो उनस्थ अर्थात् ज्ञानावरण घाले असर्वच जीव को उस समय होता है जब उसके आवारककर्म का क्षयोपशम होता है अर्थात् उसका विपाकोदय स्थगित हो जाता है। इस क्षयोपशम में वर्तमानमयीय संस्कार ही उपयोगी होता है, जो ईहा अपोह-अगायधारणा के क्रम से उत्पन्न होने वाले जातिस्मरणात्मक मतिज्ञान का हो एक प्रकार विशेष है । इस वर्तमानभवीय संस्कार को उसकी उत्पत्ति में अपेक्षणोय इस लिये माना जाता है जिससे स्मृति सामान्य के प्रति पूर्वानुभव के व्यापार के रूप में संस्कार को उपयो. गिता अक्षुण्ण रह सके । स्मृति के प्रति संस्कार की कारणता का निर्वाह ऐसे जाति स्मरण में प्रारभवोय संस्कार से नहीं किन्तु वर्तमानसंस्कार से इस प्रकार होता हैकोई भी जातिस्मरण शान कुछ भी वैपा देख-सुन कर या याद कर ऊहापोह में सड़ने से होता है । यह ऊहापोह ईद्वादिवतुष्टय अर्थात् ईहा-अपोह-अपाय-धारणा स्वरूप होता है। 'अहो ! मैंने पूर्व में ऐसा कुछ देखा-सुना है ...यह ईहा दुई। "कहां कर देखा १ दो पांच साल में नहीं....यह अपोह हुआ। फिर 'उससे भी पूर्व में देखा लगता है'......यह ईहा हुई । 'बालपन में नहीं, इस जनम में नहीं'.......यह हुआ 'अपोह' । 'हो. . १-उत्पलदलशतवेध इव दुर्विभावत्वेन प्रतिभाति । समकमिव शुष्कशष्कुलीदशने विषयाणामुपलब्धिः ॥