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शास्त्रषार्त्तासमुच्चय- स्तबक १ श्लो० ४१
अथ तत्र यदंशे संस्कारोद्बोधस्तदंशे स्मरणम्, नष्टचित्तस्य च संस्काराभावाद् न स्मरणम् इत्युद्बोधक संस्काराभावेनास्मरणोपपत्तौ किं तत्प्रतिबन्धकाऽदृष्टप. ल्पनेन ? इति चेत् ? सत्यम्, उद्बोधकानामपि स्मृत्यावरणक्षयोपशमाधायकतयैवोपयोगात् तस्यैव स्मृत्यन्तरङ्गहेतुत्वात्, विनाप्युद्बोधक क्षयोपशमपाटवात् झटितिस्मृतिदर्शनात् ।
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अर्थों की स्मृति होती
रूप से स्मृति नहीं होती, किन्तु कुछ लोगों को अनुभूत सभी है, कुछ लोगों को अनुभूत कुछ ही अर्थों की स्मृति होती है, और कुछ को किसी भी अर्थ को स्मृति नहीं होती। इस प्रकार - "पक हो स्थान से आने वाले मनुष्यों के स्मरण में जो यह विलक्षणता देखी जाती है, उसका कारण उनके कर्मवैचित्र्य को छोड और कुछ नहीं हो सकता। तो जिस प्रकार विभिन्न मनुष्यों को वर्तमान जन्म मैं अनुभूत अर्थों के स्मरण को विलक्षणता उनकी कर्मविलक्षणता से सम्पन्न होती है, उसी प्रकार पूर्वजन्म में अनुभूत अर्थों के स्मरण की विलक्षणता भी मनुष्यों के कम की से सोती है" ऐसा मानने में कोई बाधा नहीं है । इस लिये पूर्व - कारिका में जो यह बात कही गयी है कि "अनेक लोगों को जो पूर्वजन्म का स्मरण नहीं होता उसका मूल उनके चित्रकर्म का विपाक ही होता है," वह पूर्णतया युक्ति संगत है ।
( स्मरणप्रतिबन्धक - अदृष्ट को कल्पना आवश्यक है )
प्रश्न हो सकता है कि - "पूर्वानुभूत अने अर्थों में जब जिस अर्थ का संस्कार जिसे उदुख होता है तब उसे उस अर्थ का स्मरण होता है, किन्तु जिस व्यक्ति के अनुभूत अर्थो के संस्कार सम्पूर्ण नष्ट हो जाते हैं उसे संस्काररूप कारण के न होने से किसी भो अर्थ का स्मरण नहीं होता । इस प्रकार जब उद्बोधक और संस्कार के अभाव से पूर्वानुभूत अर्थ के स्मरण का अभाव उत्पन्न हो सकता है, तब स्मरण के प्रति प्रतिबन्धक होता है, इस कल्पना की क्या आवश्यकता है "
उसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि- पूर्वानुभूत अर्थविषयक संस्कार के रहते हुये भो सदैव उल अर्थ का स्मरण नहीं होता, अतः स्मरण के प्रति अष्ट को प्रतिबन्धक मानना आवश्यक है । इस प्रतिबन्धक के क्षयोपशम के लिये ही उद्बोधक की अपेक्षा होती है । यदि प्रतिबन्धक का अस्तित्व न हो तो उद्बोधक की कोई आवश्यकता ही न होगी । सच बात तो यह है कि स्मरण के 'आवरणकर्म का क्षयो पशमं ही स्मरण का अन्तर कारण है, उद्बोधक द्वारा उसके सम्पन्न होने पर ही स्मरण की उत्पत्ति होती है किन्तु जब क्षयोपशम पडु होता है अर्थात् स्मृति का आवरण इतना दुर्बल होता है कि उद्बोधक के बिना ही उसका क्षयोपशम हो जाता है तब उद्बोधक के न रहने पर भी स्मरण की उत्पत्ति हो जाती है । क्षयोपशम की यह पटुता अर्थात् विशेषकारण के बिना ही क्षयोपशम की सम्पन्नया विषय के पुनः पुनः अनुभव और पुनः पुनः स्मरणरूप विषयाभ्यास पर निर्भर होती है । जो विषय अनेकशः अनुभूत और स्मृत होता रहता है, उसकी स्मृति में विलंब नहीं होता, क्यों कि उस विषय की स्मृति के आवरण का क्षयोपशम, उस विषय की और चित्त के