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________________ १२८ शास्त्रवातसमुच्चय- स्तबक १ श्लो ०४१ ( उपादान से अनूभूत अर्थ का स्मरण उपादेय को नहीं हो सकता ) शरीर चैतन्यवादी की ओर से यह कहा जा सकता है कि स्मरण के प्रति संस्कार -आश्रयता और स्वाश्रयोगदेयता, अन्यतरसम्बन्ध से कारण होता है । संस्कार आश्र यतासम्बन्ध से अनुभवकर्ता में, और स्वाश्रयोपादेयता सम्बन्ध से अनुभवकर्ता के उपादेयकार्य में रहता है, अतः जिस शरीर से किसी विषय का अनुभव होकर उस विषय का संस्कार उत्पन्न होगा, उस संस्कार से उस विषय का स्मरण उस शरोर को भी होगा और उस शरीर के उपादेय अन्य शरीर को भी होगा । स्मरण और संस्कार में इस प्रकार का कार्यकारणभाव मानने पर बालशरीर से अनुभूत विषय का युवाशरीर को स्मरण होने में कोई बाधा न होगी, क्योंकि बालशरोर और युवाशरीर में उपादान उपादेयभाव होने से बालशरीर के अनुभव से उत्पन्न संस्कार स्वाश्रयोपादेयता सम्बन्ध ले युवाशरीर में पहुँच सकेगा । ऐसा मानने पर यदि यह शंका हो कि - "बाल शरीर के नष्ट होने पर उसमें उत्पन्न संस्कार भी नष्ट हो जायगा अतः युवाशरीर में उसका उक्त सम्बन्ध होने पर भी स्वरूपतः अथवा व्यापारतः किसी भी प्रकार उसके न रहने पर उसके स्मरणात्मक कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि यह नियम है कि किसी कारण का कार्य तभी उत्पन्न होता है जब वह कारण या तो स्वयं रहे अथवा उसका कोई व्यापार रहे। बालशरीर का नाश होने पर तद्वत संस्कार का नाश हो जाने से वह संस्कार न तो स्वयं रहता है, और न कोई उसका व्यापार ही रहता है, अतः युवाशरीर में उसके स्मरणात्मक कार्य की उत्पत्ति असंभव है" - तो इस शंका के उत्तर में यह कहा जा सकता हैं कि जब बालशरीर से युवाशरीर की उत्पत्ति होती है तय बालशरीरगत संस्कार से युवा शरीर में समानविषयक नये संस्कार की भी उत्पत्ति हो जाती है । यह संस्कारजन्यसंस्कार भी पूर्वानुभवमूलक होने के कारण पहले संस्कार के समान हो पूर्वानुभव का व्यापार होता है, -: - इस मान्यता के अनुसार संस्कार सर्वत्र आश्रयतासम्बन्ध से ही स्मरण का कारण होता है । अय स्वायमशेयादेयतासम्बन्ध से उसे कारण मानने की आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि उत्पत्तिद्वारा पूर्वशरीरगत संस्कार उत्तरशरीर में संकान्त हो जाता है ।" विचार करने पर शरीर चैतन्यवादी का उपर्युक्तकधन सभीचीन नहीं प्रतीत होता, क्योंकि करयुक्तशरीर से किसी विषय का अनुभव होने पर कर छेदन के बाद शरीर के करहीन हो जाने पर भी उक्त विषय का स्मरण होता है किन्तु शरीर चैतन्यपक्ष में यह स्मरण न हो सकेगा. क्योंकि छिन्नकर करहीनशरीर का उपादान नहीं होता, अतः छिन्न कर से अनुभूतविषय के संस्कार का करहीन शरीर में संक्रमण न हो सकने से करहीन शरीर की उस विषय का स्मरण नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि " कर से जिस विषय का अनुभव होता है उस विषय का अनुभव शरीर के अन्य ऐसे अवयवों से भी होता है जो करहीन शरीर के भी उपादान होते हैं, अतः उन अवयवों द्वारा करदोन शरीर में करानुभूत विषय के संस्कार का सङ्क्रमण सम्भव न होने से करहीम शरीर में करयुक्तशरीर द्वारा अनुभूत
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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