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________________ शास्त्रवातासमुच्चय "अहिंसया क्षमया क्रोधस्य, ब्रह्मचर्येण वस्तुविचारेण कामस्य, अस्तेया-ऽपरि ग्रहरूपेण सन्तोषेण लोभस्य. सत्येन यथार्थज्ञानरूपेण विवेकेन मोहस्य, तन्मूलानां च सर्वेषां निवृत्तिः" इति तु पातकनसतानुपारिगः । तत्रे विमानोयम्-अहि सादिना मूल गुणघातिकोवादिनिवृत्तावपि संचलनादिरूपको वादिनिवृत्तिः क्षमायुत्तरगुणसाम्रज्यादेव ॥५॥ की उत्पत्ति न होने से सुख की उत्पत्ति का द्वार खुल जाता है । कहने का आशय यह है कि अधर्मकार्यों का अनुष्ठान होते रहने पर पहले तो धर्मकार्यों का अनुष्ठान ही नहीं हो पाता, और यदि होता भा है तो उनसे विशुद्ध सुग्न का उदय नहीं हो पाता । अतः विशुद्ध सुख के उदय को निष्प्रतिवन्ध बनाने के लिये यह आवश्यक है कि अधर्मकारणों का त्याग और धर्मकारणों का सेवन सावधानी और श्रम के साथ किया जाय । 'पातम्जलमत का अनुसरण करने वाले बुध जनों का कहना है कि-क्रोध काम लोभ और मोह ये चारों दुःख और दुष्कर्म के द्वार हैं । उनका मूल है मोह-मिथ्याशान-आत्म. धान्ति । अतः दुःख और दुरुकर्मों से मुक्ति पाने के लिये इन चारों का निराकरण आव. श्यक है, इन में क्रोध की निवृत्ति अहिंसा और क्षमा से, काम को निवृत्ति ब्रह्मचर्य और वस्तु-विखार से, लोभ की निवृति अस्तेय और अपरिग्रहरूप सन्तोष से, तथा मोह की निवृत्ति सत्य और यथार्थ शानरूप विवेक से करनी चाहिये । कोध आदि की निवृत्ति हो जाने पर तम्मूलक दुःख और दुष्कर्मों की निवृत्ति अनायास हो जाती है। व्याख्याकारने इस कथन पर अपनी विमति प्रकट की है। उनका आशय यह है कि क्रोध, काम, लोभ और मोह के दो रूप हैं-एक स्थूल और दूसरा सूक्ष्म । जैनपरिभाषा नुसार स्थूल क्रोधादि (१) अनन्तानुबन्धी, २) अप्रत्याख्यानीय च (३) प्रत्याख्यानावरणीय कोटि के होते हैं । विवेक सम्यक्त्व व संयम से हीन संसारासक्त मनुष्यों पर स्थूलक्रोधादि का आक्रमण होता है, और उनसे उनके अहिंसादि मूलगुणों का सर्वथा विधात होता है। सर्वथा महिंसादि भूलगुण वाले संयमी और विवेकी मनुष्यों पर स्थूलक्रोधादि का भाक्रमण नहीं हो पाता पर सूक्ष्मक्रोधादि से वे भी आक्रान्त होते रहते है, स्थलकोधादि से अप्रभावित होने के कारण ये अपने मूलगुणौ को हानि से तो बचे रहते है पर सुक्ष्मक्रोधादि के कारण उनको आध्यात्मिक उन्नतिविशेष में अन्तराय होता रहता है जिसके फलस्वरूप परमकल्याणमय सम्पूर्ण वीतराग अवस्था की उपलब्धि में बाधा पहुँचती रहती है। इसलिये स्थूल-सूक्ष्म दोनों प्रकार से क्रोधादि की निवृत्ति अपेक्षणीय है। अडिसा आदि से स्थूल क्रोधादि की निवृत्ति तो हो सकती है, पर सूक्ष्म क्रोधादि, जिन्हें जैमशास्त्रों में 'संज्वलन कषाय' शब्द से अभिहित किया गया है, की निवृत्ति क्षमा आदि उनास गुणों के संबंधन से ही सम्पन्न की जा सकती है। अतः जैनशास्त्रों का यह मत ही मान्य है कि अहिंसा आदि से हिंसादि अविरतियों की, सम्यग्दर्शन से मिथ्यात्व की एवं क्षमा आदि सद्गुणों से क्रोधादि दुर्गुणों की निवृनि कर नमूलक दुःखों की उत्पत्ति का निरोध करने से ही कल्याणोदय का द्वार उद्घाटित होता है। १. पतञ्जलि ऋषि प्रणीत योगदर्शन के सिद्धांतों को पातञ्जलभत के रूप में निर्दिष्ट किया गया है।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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