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स्या० क० टीका व हि० षि०
स्वभावतः सुखदुःखेच्छाद्वेषवतामपि प्राणिनां सुखोपाये धर्मेऽनिच्छा, दुखोपाये चाsधर्म एवेच्छा खलु मोहमहाराज निदेश विलसितम् तदुक्तम्"धर्मस्य फलमिच्छन्ति धर्मं नेच्छन्ति मानवाः ।
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फलं नेच्छन्ति पापस्य पापं कुर्वन्ति सादग" ॥ इति
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उत्तहेतुषु प्रवृत्या च अहिंसादिनाऽविरतेः सम्यग्दर्शनेन च मिथ्यात्वस्य, क्षमादिना च क्रोधादीनां निवृत्तेस्तन्मूलकदुःख विरहाद निवारितः सुखाऽवकाशः | रख कर प्रस्तुत कारिका में अधर्म के कारण हिंसा आदिके अभाव को धर्म का कारण न कह कर 'विपरीतास्तु' शब्द से हिंसा आदि के विरोधी कर्मों को धर्म का कारण बताते हुये उनके लिये सतत प्रयत्नशील होनेकी प्रेरणा दी गयी है ।
प्राणी को सुख की इच्छा और दुःख के प्रति द्वेष का होना स्वाभाविक है । यदि frer व्यक्ति से यह पूछा जाय कि वह सुख की कामना क्यों करता है, तो उसके पास इस बात को छोड़ कर दूसरा कोई उत्तर नहीं है कि सुख का स्वरूप ही ऐसा है कि वह ज्ञात होने मात्र से ही काम्य हो जाता है । इसीलिये सुखनिष्यविषयता सम्बन्ध से इच्छा के प्रति सुखनिष्टविषयता सम्बन्ध से ज्ञान को कारण माना जाता है । इसी प्रकार किसी व्यक्ति से यदि यह प्रश्न किया जाय कि वह दुःख से क्यों करता है तो यह इस बात को छोड़कर दूसरा कोई उत्तर नहीं दे सकता कि दुःख का स्वरूप ही ऐसा है कि यह ज्ञात होते ही त्याज्य प्रतीत होने लगता है । इसीलिये दुःखनिष्ठ विषयता सम्बन्ध से द्वेष के प्रति दुःख निष्टविषयता सम्बन्ध से ज्ञान को कारण माना जाता है ।
सुख और दुःख के स्वभावतः काम्य और द्वेष्य होने से उचित यह है कि सुख के उपायभूत धर्मकार्यों में मनुष्य की रुचि हो और दुःख के उपायभूत अधर्मकार्यों में उसकी अरुचि हो, पर ऐसा न होकर होता है इसके विपरीत, धर्मकार्यों में होती है मनुष्य की अहमि और अधर्मकार्यों में होती है उसकी रुचि । ऐसा क्यों होता है ? यह होता है इसलिये कि मनुष्य मोहवश अधर्मकार्यों को सुख का साधन और धर्मकार्यो को दुःख का साधन समझने लगता है। सुख और दुःख के साधनों के सम्बन्ध में यह विपरीत बुद्धि जिम मोह के कारण होती है, उसी का नाम है मिथ्यात्व | और वह है आरमा के वास्तव स्वरूप का विस्मरण हो कर अनारमा में आत्मबुद्धि का होना । इस प्रकार धर्मकार्यों में अरुचि तथा अधर्मकार्यों में रुचि का होना व्याख्याकार के कथन के अनुसार मोहमहाराज के आदेश का प्रतिफल है, जिसकी पुष्टि में उन्होंने इस आशय की एक प्राचीन कारिका उद्घृत की है कि 'मनुष्य धर्म का फल तो चाहते हैं पर धर्म परना नहीं चाहते, और पाप का फल नहीं चाहते, पर पापकर्म बड़े आदर से करते हैं' ।
व्याख्याकार का कहना है 'कि-धर्म के अहिंसा आदि उक्त कारणों के लिये प्रयत्नशील होने से अहिंसा आदि अविरतियों की सम्यगदर्शन से मिथ्यात्व की व क्षमा आदि से क्रोध आदि की निवृत्ति होती है। फलतः हिंसा आदि से होने वाले दुःखों