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शास्त्रमास समय वक्तव्ये शास्त्रवार्तासमुच्चये पूर्व सर्वविप्रतिपत्त्यविषयां शास्त्रवार्तामाइ 'दुःखमिति -
मूलम्-दुःख पापात् सुख धर्मात् सर्वशास्त्रेषु संस्थितिः ।
न कर्त्तव्यमतः पापं, कर्तव्यो धर्मसञ्चयः ॥३॥ पापाद् अधर्मात् दुख हति, व सुख जाति-इन अर्जास्त्रेषु समीचीना अविप्रतिपत्तिविषया, स्थितिः मर्यादा । अतो दुःखहेतुतया पापम्-अशुभकर्महेतु न कव्यम्, सुखहेतुतया सचितोऽङ्गवैकल्यादिरहितो धर्मः कर्तव्यः ॥३॥
शुभाशुभहेतूनां कत्तच्याकतव्यत्वमुक्तम् । अथ तदेतूनाह 'हिंसेति । पाप-धर्महेतुपरिहारासेवनाभ्यां तदकरणादि, इति तद्धेतूनाइ 'हिंसे'ति इत्यपरे ।
मूलम्-हिंसाऽनृतादयः पञ्च तत्त्वा श्रद्धानमेव च।।
क्रोधादयश्च चत्वार इति पापस्य हेतवः ॥४॥ प्रस्तुत विचार के उपसंहार में व्याख्याकार का कहना है कि इस विषय में अब तक जो कुछ कहा गया है, यदि उससे अधिक जिज्ञासा हो तो व्याख्याकार के अन्य ग्रन्थ 'न्यायालोक' से बात करना चाहिये । व्याख्याकार ने यह भी सूचना दी है कि प्रस्तुत विषयमें जो धात इस व्याख्याग्रन्थ में अभी तक नहीं कही जा सकी है तथा जो बान 'यायालोक' में स्पष्ट उपलभ्य नहीं है, उसका प्रतिपादन इस व्याख्याग्रन्थ में ही आगे किया जायगा ॥२॥
इस ग्रन्थ में विभिन्न शास्त्रों की जो बातें कहती हैं उनमें उस चातको, जिसमें किसी शास्त्र की विमति नहीं है, ग्रन्थकारने पहले कहा है। वह बात यह है कि अधर्म से वुःख होता है और धर्म से सुख होता है-यह मभी शास्त्रों का ऐसा सिद्धान्त है जिसमें किसी का कोई वैमत्य नहीं है। इसलिये मनुष्य को दुःख के हेतुभूत अशुभकर्म के उत्पादक पाप कर्म का अनुष्ठान नहीं करना चाहिये और सुख के हेतुभूत धर्मकार्य का अनुष्ठान करना गुण का अर्थ होगा प्रागभायप्रतियोगी अमाव का प्रतियोगीविशेषगुण, तो आरमा के भागभावप्रतियोगी अभाव के प्रतियोगी विशेषगुण के प्रति शरीर आदिको कारण मानने की अपेक्षा तो आत्माके पागभावप्रतियोगी विशेषगुण के छी प्रति शरीर को कारण मानना उचित है क्योंकि कार्यतावशेदक के शरीर में प्रागभावप्रतियोगी अभाव के प्रतियोगित्त्र के निवेश की अपेक्षा प्रागभावप्रतियोगित्व के निवेश में लाघव है और उस स्थिति में मोक्षकाल में शरीर आदि का अभाव होने से सुख एवं सुखानुभव की उत्पत्ति सम्भव नहीं हो सकती । __इस शशा के उत्तरमें यह कहा जा सकता है कि विशेषगुण के विशेषणरूप में प्रागभावतियोगित्व का कार्यतावच्छेदक के शरीर में निवेश करने में कोई लापन नहीं है, क्योंकि प्रागभाव का लक्षण हे ध्वंसप्रतियोगी अभाव, अतः प्रागभावप्रतियोगी का अर्थ होगा ध्वमप्रतियोगीअभाव का प्रतियोगी, तो फिर विशेषगुण में वंसप्रतियोगीअभाव के प्रतियोगित्वका निवेश न कर स्वसप्रतियोगिव का ही निवेश करने में लाघव होने से आत्मा के ध्वंसप्रतियोगी विशेषगुण के प्रति शरीर आदि को कारण मानने में कोइ भाषा नहीं है, क्योंकि वंस का प्रभावप्रतियोगी-अभावत्वरूप से निशन कर अखण्ड उपाधिस्वरूप ध्वंसत्वरूपसे निवेश करने पर उक्त शक्का को अवकाश नहीं प्राप्त हो सकता ।