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स्या० क० टीका वहि. वि०
प्रमादयोगेन प्राणव्यपरोपणं हिंसा, धर्मविरुद्धं वचनमनृतम् आदिपदाद् धर्मविरोar स्वामिजीवाद्यननुज्ञात पर की यद्रव्यग्रहणमदत्तादानम्, स्त्री-पुंसव्यतिकरलक्षणमब्रह्म, सर्वभावेषु लक्षणः परिग्रहश्व परिगृयते । अत्र च 'आदि' शब्दादवरोधेऽप्यनृतग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थम् इति वदन्ति । तत्ख्यापनं च प्रभृतिप्रधानार्थकयोरादिशब्दयोः कृतैर्वादेवेति प्रतिभाति । 'आधे परोक्षम् ' (०० १-११) इत्यत्रेवोत्तरत्रयाऽपेक्षमाद्यत्वमित्याक्षेपादेवानृतस्य प्राधान्यं लभ्यत इत्यपरे । एते पञ्चाविरतिरूपाः । तस्य यथास्थितवस्तुनोऽश्रद्धानं यस्मादिति बहुव्रीह्याश्रयणात् तच्चाश्रद्धानं मिध्यात्वम् । पत्रकारः प्रसिद्ध्यर्थः । च पुनरर्थः । क्रोधादयः - कोध- मान-माया - चोभाव चत्वारः इति एतावन्तः | योगानां साधारण्येनाग्रहणात् विषयप्रमादात्तरौद्रादीनां चात्रैवान्तर्भावशद, इति एवं प्रकाश वा पापस्य अशुभकर्मण: हेतवः कारणानि ॥ ४ ॥
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चाहिये। धर्म का अनुष्ठान मेसी सावधानी से किया जाना चाहिये जिससे उसमें संचितता रहे अर्थात किसी को कोई त्रुटि होने पाये ॥३॥
व्याख्याकार ने चौथी काशिका का अवतरण दो प्रकार से बताया है, एक अपनी ओर से और दूसरा अन्य विद्वानों की ओर से । उनका अपक्ष कहना यह है कि
तीसरी कारिका में शुभ के हेतुभूत कर्मों को कर्तव्य और अशुभ के हेतुभूत कर्मों को अकर्तव्य कहा गया है, किन्तु यह नहीं बताया गया कि वे कर्म क्या हैं, अतः 'हिंसानृतादयः' इत्यादि चौथी कारिका से उनका प्रतिपादन किया जा रहा है ।
अन्य विद्वानों का कहना यह है कि तीसरी कारिका में पार को न करने और धर्म को करने का उपदेश दिया गया है, किन्तु पाप का न करना पापके हेतुओं के परिहारसे और धर्म का करना धर्म के हेतुओं के सेवन से ही सम्भव है, जिन्हें उक्त कारिका में नहीं बताया गया है । अतः अग्रिम चौथी कारिका से उन हेतुओं का प्रतिपादन किया जा रहा है।
चौथी कारिका में यह बताया जा रहा है कि हिंसा असत्य आदि ( दुष्कृत्य) एवं तस्वभूत पदार्थ का अश्रद्धान ( मिथ्यात्व) व क्रोधादि चार (कपाय) ये पाप के हेतु हैं ।
'हिसानुनादयः' का अर्थ है हिंसा, अनृत, असादान, अब्रह्म और परिश्र । उनमें हिंसा तथा अमृत का प्रत्यक्ष उल्लेख है । और अन्य तीन का आदि शब्द से उल्लेख है ।
हिंसा - हिंसा का अर्थ है किसी जीव का प्रमादवश प्राणान्त करना। 'प्रमाद'का अर्थ है आत्मभाव से व्युत होना, अनात्मस होना, जीवरक्षादि के विषय में असावधान रहना । मज्जे विमय कसाया निद्दा विगहा य पंच पमाया' मयादि व्यसन, शब्दादि विषय, क्रोधादि हास्यादि काय निद्रा आलस्य अनुप्रयोग व राजकथादि चिकथा, ये प्रमाद हैं । अ- अनृतका अर्थ है धर्मविरुद्ध बोलना । 'धारणाद् धर्मः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार धर्म शब्द का अर्थ है धारक रक्षक, मिस वचन से धर्म का विरोध हो, किसी जीव के
१. दृष्टव्य] सिरियाल - कहा ।
शां. वा. ७