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________________ ५० शास्त्रवासिमुच्चय प्राण का संकट हो, वह पचन अमृत वचन है, मिथ्याभाषण है । इसके अनुसार यह सत्यभाषण भी भनूतकोटि में आ जाता है जिससे किसी जीवकी रक्षा में बाधा पडे । अदत्तादान- अदत्तादान का शब्दार्थ है अदत्त का आदान-न दी हुयी वस्तु को ग्रहण करना। अर्थात् पेसे द्रव्य को ग्रहण करना, जिसके लिये उसके 'स्यामी-जीव-तीर्थकर और अपने गुरु की अनुमति न हो। जीव हिंसा में उस जीव से अदत्तप्राण का आदान होता है, इस में उस जीव की अनुमति नहीं होती है। ___ अब्रह्म- अब्रह्म का अर्थ है ब्रह्मविरोधी आचरण, 'कन्याद् ब्राह्म' इस व्युत्पत्ति के अनुसार मनुष्य शरीर के Jहण-पोषण और संवर्धन का साधन होनेसे ब्रह्मा शब्द का अर्थ है घीर्य, इसलिये अब्रह्म का अर्थ है वोर्यनाशक कार्य, और वह है स्त्री-पुरुष का ध्यतिकर- यौनसम्पर्कपर्यवसायी स्त्री पुरुष का पारस्परिक व्यवहार । परिग्रह- परिग्रह का अर्थ है "सभी भावों में मूर्छा का होना-संसार की किसी भी पस्तु पर ममत्य होना, अधिकार स्थापित करने की अकांक्षा का होना । हिंसानृताश्यः' के सम्बन्ध में यह प्रश्न होता है कि-आदि शब्द से अमृत का भी प्रहण सम्भव होने से अनुस का पृथक् उल्लेख अनावश्यक है । इसके उत्तर में कुछ लोगों का कहना है कि हिंसा आदि पांवों में अनूत की प्रधानता बताने के लिये उसका पृषक उल्लेख किया गया है। उनका आशय यह है कि हिंसाऽनृतादयः' शब्द में आये 'भावि' शब्द में "आविश्व आदिश्च आदो" इस प्रकार एकशेष हुआ है, अतः उसके दो अर्थ है-प्रभृति और प्रधान। प्रभृति अर्थ में हिंसा का और प्रधान अर्थ में अनृत का अन्वय होने से 'हिंसाऽनुसादयः' का अर्थ है-अनृतप्रधानक-हिंसाप्रभृतिकार्य। ___अन्य लोगों का कहना है कि जैसे 'मति, श्रुत, अधि, मनःपर्याय तथा केपल, शाम के इन पांच मेदों में मति और श्रुत में अवधि आदि उत्तनिर्दिष्ट तीन बानों की अपेक्षा प्रथम निर्देशगम्य आयत्व को ले कर 'आधे परोक्षम्' इस सूत्र में उन्हें परोक्ष कहने के लिये आद्यशब्द से उन दोनों का उल्लेख किया गया है, उसी प्रकार 'हिंसानृतादयः' में यह कहा जा सकता है कि अदत्तादान, अब्रा और परिग्रह इन उत्सर निविष्ट तीनों की अपेक्षा हिंसा व अनृत ये दो आद्य होनेसे आदि शब्द से पूर्व में अनृत का उल्लेख किया गया है और आयत्यहेतुक अनुमान से उसमें प्राधान्य का शोध होता है। ____ हिंसा, अनृत आदि कर्मों के प्रतिज्ञाबद्ध अत्याग को पाँच अधिति कहा जाता है। अधिरति का अर्थ है-हिंसादि की सतत अपेक्षा की विश्वान्ति न हो । इससे पापारमक अशुभकर्मयम्ध की भी घिरति-विश्रान्ति महीं होती है । निरन्तर नये नये पापकर्मों का बन्ध होता रहता है । हिंसा, अन्त आदि का जहाँ तक प्रतिक्षाबद्ध त्याग नहीं है यहाँ तक, भले हिंसादि का आचरण न भी हो, तो भो पापात्मक कर्मा की परम्परा बनती रहती है, उसकी विरति नहीं होतो है । इसीलिये प्रतिशाबद्ध त्याग नहीं किये ये पांचों कर्म अधिरतिरूप माने जाते हैं। १. सामिजीवादत्त तित्थयर-अदत्तं तहेव गुरुहिं । एवं अदत्तं चउहा पन्नत्त वीयरावहिं ।। अति२. मुच्छा परिगहो वुत्तो--उत्तराध्ययन सूत्र | ३. दृष्टव्य "रावार्थ० १।९" | [चार सूत्र
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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