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'तयाऽश्रद्धाम' शब्द में 'तत्वस्य अश्रवानं यस्मात-जिसके प्रभाष से तत्त्व के विषय में अश्रद्धान का उदय हो'-इस अर्थ में बहुव्रीहि समास है। तस्वशब्दका अर्थ है वस्तु का पह सर्वशष्ट लवंशकथित पदार्थ स्वरूप हिलसे उसकी स्थिति है । 'अश्रद्धान' का अर्थ है अन्ययास्त्रीकार, मिथ्यामान्यता, जिस रूप से निस वस्तु की स्थिति नहीं है उस रूप से उस वस्तु को मानना-स्वीकारना । इसप्रकार का अश्रद्धान जिससे उत्पन्न हो वही बहुप्रीहि समास द्वारा 'तत्याऽअदान' शब्द का अर्थ है, और वह है 'मिथ्यात्व'-मात्मगत चिरन्तन मिथ्या भाष मिथ्यावासना, जिससे भ्रान्तियों का जन्म होता है।
कारिका में आये 'पव' शब्द का अर्थ है, प्रसिद्धि और 'च' शब्द का अर्थ है 'पुनः' । इम दोनों का अन्वय है तखाबद्धान मिथ्यात्य के साथ ।
'क्रोधादयः' में आदि शव से मान, माया और लोभ का ग्रहण अभिमत है। ये प्यार 'कषाय' कहे जाते हैं । 'इति' शब्द का अर्थ है "ईतना अमुकसंख्यक" ।
_ 'योग धर्म और अधर्म दोनों के साधारण कारण हैं अतः अधर्म के विशेष कारणों में उसकी गणना नहीं की गयी है । 'विषय, प्रमाद, मार्तध्यान, 'रौद्रध्यान, आदि भी यद्यपि अधर्म के कारण हैं तथापि उनका पृथक उल्लेख इसलिये नहीं किया गया कि उनका अन्तर्भाव अधर्म के उक्त कारणों में ही हो जाती है अतः अधर्म के कारिकोक्त कारणों को एक नियत संण्या में निर्दिष्ट करने में कोई असंगति नहीं है।
अथवा 'इति' शब्द का इसना--अमुकसंख्यक अर्थ न करके इस प्रकार' अर्थ करना चाहिये, इस अर्थ के अनुसार कारिका में बताये गये अधर्म के कारण उसके अन्य कारणों के उपलक्षण हो जाते है। और अन्य कारणों का होना इन कारणों के उल्लेख में बाधक नहीं हो सकता , और अन्य कारणों का उल्लेख न होने से अन्ध में न कोई न्यूनता ही हो सकती है। ___ पाप शब्द का अर्थ है अशुभकर्म और हेतु शब्द का अर्थ है -कारण | प्री कारिका का अभिप्राय यह है -
१. काया, वाक् और मन की चेष्टायें । ये शुभ-अशुभ दो प्रकार की होती है । शुभ योग धर्म का प अशुभयोग अधर्म का कारण बनता है।
२, शब्दादि विषयों की अशक्ति, जो पञ्चविध प्रसाद में मुख्य है। ३. भ्रम-अशान विस्मृति-संशवादि-प्रमाद है-(दृष्टव्य 'तत्त्वार्थ' सिद्धसेनीय टीका)
४. अनिष्ट सम्पक के परिहार या अनागमन को चिन्ता, उपस्थित रोग के प्रतिकार की चिन्ता; इष्ट वस्तु की सुरक्षा या प्राप्ति की चिन्ता, अप्राज इष्ट वस्तु की प्राप्ति की चिन्ता, यह चतुर्विध चिन्ता ही 'आर्टभ्यान' है, दृष्टब्य "तत्वाथै ३१३१ से ३४" |
५ हिंसा, असत्य, चोरी या विपयरक्षण के सम्बन्ध में होने वाली परकाय रौद्रचिन्ता का नाम है 'रौद्रध्यान' दृष्टव्य "तल्यार्थ० ३१३६"
६. 'विषय' इन्द्रियधित्रयों की आसक्तिरूप है इसका अविरति में समावेश होता है । 'प्रमाद' मयादिका अविरति व कपास में अन्तर्भाव होता है । 'पार्न रौद्रध्यान' अशुभ एकाग्र मनोयोग रूप है, वे रागद्वेषमूलक व रागद्वेषमिश्रित होते है, अतः उनका समावेश कषाय में होता है ।