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स्या० का टीका व हिं० वि०
(स्या०)न च शरीरादिकं विना मुखाद्यनुत्पत्तिाधिका, शरीरादेर्जन्यात्मविशेषगुणत्वावच्छिन्नं प्रत्येव हेतुत्वाव, तत्र च जन्यत्वस्य ध्वंसप्रतियोगित्वरुपस्येश्वरबानादेरिच मुक्तिकालीनज्ञानसुखादेरपि व्यावृत्तत्वादिति । अधिकं मत्कृत 'न्यायालोकाद' अवसेयम्, वक्ष्यते चावशिष्टमुपरिष्टात् ॥२॥ मोक्ष को सुखमय बताने वाले शास्त्रवचनों के अनुरोध से मोक्षकाल में सुखाभाव का अस्तित्व न मान कर सुख का ही अस्तित्व मानना तर्कसंगत पवं न्यायसंगत है।
यदि यह कहा जाय कि-'मोक्ष में सुख या सुखानुभव इसीलिये नहीं माना जा सकता कि उस अवस्था में सुख पवं सुखानुभव के उत्पादक शरीर आदि का अभाव होता है, तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि शरीर आदि तो आत्मा के जन्य विशेषगुण के ही कारण होते हैं, और मोक्ष काल का सुख पवं सुखानुभव जन्य नहीं होता, अतः शरीर आदि के अभाव में भी मक्षिकाल में सुख एवं सुखानुभय के होने में कोई बाधा नहीं हो सकती।
यदि यह प्रश्न हो कि- 'मोक्षकाल का सुख पवं सुखानुभव यदि जन्य न होगा तो सदातन (यानी अनादिकालीन) होने से बांधनावस्थामें भी रहेगा, फलतः बन्धनावस्था और मोक्षावस्था में कोई अन्तर न हो सकेगा । अथवा अन्सर होने पर भी जो मोक्षावस्था में प्राप्तव्य है वह यदि बन्धनावस्था में भी सुलभ होगा तो मोक्षावस्था के लिये प्रयास करना ध्यर्थ होगा.'- तो इसका उत्सर यह है कि मोक्षकाल के सुख पवं सुखानुभव को जन्य न मानने का यह अर्थ नहीं है कि वह सदातन है, (अनादि प्रकट है.) उसकी उत्पत्ति नहीं होती', किन्तु उसका अर्थ यह है कि मोक्षावस्था में जो सुख पवं सुखानुभव उत्पन्न होता है, अन्य जन्य पदार्थों के समान उसका ध्वंस नहीं होता, अपितु ईश्वर के शान आदि गुणों में जैसे ध्वंसप्रतियोगित्व का अभाव होता है, उसी प्रकार मोक्षकाल के सुख एवं सुखानुभय को जन्य न मानने का अर्थ है उसे ध्वंस का प्रतियोगी न मानना । इस पर यदि यह प्रश्न हो कि 'मोक्षकाल के सुख पचं सुखानुभव का ध्वंस भले न हो, पर यदि उसकी उत्पत्ति होती है तो मोक्षकाल में शरीर आदि कारणों के अभाव में घट कैसे हो सकेगी?' तो इसका उत्तर यह है कि यदि शरीर आदि को आत्मा के प्रागभावप्रतियोगी रूप अन्य विशेष गुणों का कारण माना जाय, तो मोक्षकाल में शरीर आदि न होने से मुख पर्व सुखानुभव की उत्पत्ति अवश्य असम्भव होगी, परन्तु यसप्रतियोगीरूपजन्यविशेषगुणों का कारण मानने पर यह दोष नहीं हो सकता, क्योंकि मोक्षकाल के सुख पवं सुस्वानुभव ध्वंस का अप्रतियोगी होने से उनकी उत्पत्ति के लिये शरीर आनि का होगा अनावश्यक है, मोक्षकाल में सुख पवं सुखानुभव की उत्पत्ति शरीर आदि के अभाव में भी हो सके, एतदर्थ शरीर आदि को आत्मा के 'ध्वंसप्रतियोगी विशेषगुणों का ही कारण मानना उचित है।
१ आत्माके ध्वसप्रतियोगीविशेषगुणों के प्रति शरीर आदि को कारण मानने के विरुद्ध वह शक्का हो सकती है कि 'ध्वंसका लक्षण है जन्य अभाव, और ध्वंस का ध्वंस न होने से उसकी जन्यता ध्वंसपतियोगीस्वरूप न हो कर प्रागभावप्रतियोगित्वरूप है, अतः ध्वंसपागभावपतियोगी अभाव, तो ध्वंसप्रतियोगी विशेष