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शा० वा० समुच्चय
न चेदेवम्, सुखमात्यन्तिकं यत्र बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।
तं वै मोक्षं विजानीयादुष्प्राप्यमकृतात्मभिः । इत्यादिवचनविशेषः । यदि आख्याता संख्या का भी अन्वय अगर अभाव में ही किया जायगा तो 'पृथिव्यां स्नेहगन्धौ स्तः' - 'पृथिवी में स्नेह और गन्ध इस उभय का अभाव होता है' इस वाक्य में 'स्तः' शब्द असू, धातु के उत्तर द्विवचन 'तस्' प्रत्यय के द्वित्वरूप अर्थ का अन्वय न हो सकेगा, क्योंकि पृथिवी में गन्धाभाव न होने के कारण उस वाक्यों में आये 'न' शब्द से स्नेहाभाव और गन्धाभाव इन दो अभावों का बोध न मानकर स्नेह-मन्ध उभय के एक अभाव का ही बोध मानना पडता है, और उस एक अभाव में द्वित्व का अन्वय स्वीकार करना आवश्यक हो जाता है । 'द्विवचनान्त क्रियापद के सन्निधान में आख्याता संख्या का अन्य 'न' शब्द के अर्थ अभाव में न हो कर अभाव के प्रतियोगी में ही होता है,' इस बात का उपपादन अन्यत्र किया गया है ।
यदि यह शङ्का की जाय कि उक्त श्रुतिसे सुखदुःखोभयाभाव का बोध मानने पर भी उससे मोक्षकाल में सुखाभाव की सिद्धि हो सकती है, क्योंकि सुख दुख उभर का अभाव सुखाभाव से भी हो सकता है और दुखाभाव से भी हो सकता है सुबाभाव दुखाभाव इस अभाव द्वय से भी हो सकता है। मोक्षकाल में उक्त उभयाभाव किम्मू तक है इस श्रातमें कोई विनिगमक नहीं है। अतः श्रुति का तात्पर्य इस बात में मान सकते है कि मोक्षकाल में सुख-दुखोभय का अभाव सुखाभाव और दुनाभाव उभय मूलक है, तो इस प्रकार उक्त युति से मोक्षकाल में सुबाभाव की सिद्धि होने में कोई बाधा नहीं है'- तो इस शंका के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि मोक्षकाल में सुखदुख उभय का अभाव सुखाभाव मूलक है या दुःखाभावमूलक है अथवा द्वयमूलक है, इस बात में विनिगमकनिर्णायक का अभाव नहीं है, किन्तु दुखाभावमूलक है यह मानने में विनिगमक है, और वह इस प्रकार कि मोक्षकाल में सुखाभाव का होना विवादग्रस्त है, सर्वसम्मत नहीं, परंतु सुखाभाव का होना सर्वसम्मत है । अतः मोक्षकाल में दुःखाभावमूलक सुख दुःखोभयाभाव को उक्त श्रुति से प्रतिपाद्य मानने में सर्वसम्मति हो सकने के कारण उसके अन्यथा तात्पर्य की कल्पना उचित नहीं है. फलतः उक्तश्रुति से मोक्षकाल में सुखाभाव को सिद्धि नहीं की जा सकती ।
अपच, मोक्षकाल में सुखाभाव मानने में एक बाधा यह है कि यदि मोक्षकाल में सुखका अस्तित्व न मान कर सुखाभाव का अस्तित्व माना जायगा तो "सुखमात्यन्तिकं यत्र
ग्राह्यमतीन्द्रियम् । तं वै मोक्षं विजानीयाद् दुष्प्राप्यमकृतात्मभिः || मोक्ष उसे समझना चाहिये जिस में मनुष्य को पेसे आत्यन्तिक विशुद्ध शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है जो इन्द्रियय न होकर बुद्धिषेध होता है. तथा शास्त्रोक्त सत्कमों द्वारा अपने आत्मा का शोध न करने वाले मनुष्यों को दुष्प्राप्य होता है" ऐसे वचनों का विरोध होगा । अतः 'कलशोऽस्ति' इन दोनों वाक्यों के प्रयोग की कोई विवशता नहीं है, इष्ट बोध के लिए दोनों में से किसी का प्रयोग किया जा सकता है, इसलिये यदि दोनों का प्रयोग किया जायगा तो एक का प्रयोग व्यर्थ होगा ।
एक