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________________ स्या का टीका यहि वि 'नृसिंहाकारमाने शानत्यपटत्वप्रकारफत्वोभयाश्रयज्ञानवैशिष्टयधीन स्यात्' इति प्रसवनं तु समाहितं मि श्रेण- 'विषयनिरूप्यं हि ज्ञान, न तु विषयपरम्पयनिरूप्यम्' इत्याविना, अधिकाविषयोऽपि च व्यवसायस्य प्रवृत्तिजनकत्वमविरुद्धम्। इष्टतावरखे. दमप्रवृत्तिविषयवैशिष्टयावमाहिल्न प्रतिहेतुत्वात् ।। उम्मोने या भी कहा है कि यह उपपत्ति प्रत्यक्षात्मक व्यवसाय के ही सम्बन्ध में है। मनुर्भाित मादि व्यवसायों के सम्बन्ध में यह उपपत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि अनुमिचि मावि की उत्पत्ति के दूसरे क्षण जो अनुमिति आदि मंध में विषयमकारक नया अनुमितिष मश में निप्रकारक नरसिंहाकार हान होगा षछ अनुमिति का अनुष्यबसापात्मक मानसशान होगा, अतः उसमें अनुमितित्व का अभाव होने से अनुमिनिस्वरूप से उसका नाम नहीं माना जा सकता। प्रस्तुत मन्थ के व्याख्याकार यशोविश्पजी ने चिन्तामणिकार के उफ प्रतिपादन को भसंगत बताया है । उसका कारण यह बताया है कि मनुव्यवसाप की उगति का उपत प्रकार साधिक नहीं है निम्न कात्रिक बर: जमको मिपावन एक प्रममा क्योंकि अनुमिति आदि के ज्ञान की उपपास जय अन्य प्रकार से करनी ही होगी तब इसी प्रकार से प्रत्यक्षात्मक व्यवसाय के भी शान की उपपत्ति हो जायेगी, अतः यस उसके लिये उक प्रकार का प्रमिवाहन पफ निरर्थक व्यापार है। श्री यशोयिजयजी का यह भी कहना है कि घट आदि के प्रत्यक्षात्मक व्यवसाय के इसो क्षण में जरहाकार मान होना भी प्रामाणिक नहीं है, यद नय प्रामाणिक हो सकता कप यह नियम माना जाय कि जैसे अभाष का प्रत्यक्ष नरमायांश में घटत्वादि धर्मों में किसी एक धर्म से विशिष्ट प्रतियोगी को विशेषणरूप में विषय करमा हो क्योकि अमाघ फा प्रत्यक्ष 'घको नास्ति' इत्यादि रूप में ही सर्वानुभवनिम, उसी प्रकार व्यवसाय का मानसशामरूप अनुष्यवसाय भी व्यवसाय वश में घठन्य आशियमों में किसी न किसी एक धर्म में विशिष्ट विषय को विशेषणरूप में विषय फरना दी है, परन्तु अनुव्यवसाय के सम्बन्ध में यह नियम अप्रामाणिक है, क्योंकि जैसे 'मह सुखी' इस प्रकार सुम्न का प्रत्यक्ष सुख में किसी विशेषण को अवगाहन किये बिना ही उत्पन्न होता है उसी प्रकार कान में किसी विशेषण को विषय न करने वाले 'अई सामयान्' इस प्रकार के शानप्रत्यक्ष का होना भी सर्वजनानुभवसिद्ध है। इस सम्बन्ध में यह कहना, कि ."काम के साथ मम का को सम्मिकार्य होता है घट पान में विषय को विशेषणरूप से अपगाहम करने वाले ही प्राणप्रत्यक्ष का प्रमक होता ६, मतः उक्त सन्निकर्ष से विषय से मुक्त शाम का ग्रहण नहीं हो सकता"- ठीक नहीं है, क्योंकि इन सम्निकर्ष के फार्थतापच्छेवक धर्मों में विषय विशेषण फत्व का अन्तर्भाव करने में गौरव होता है. अतः उसका कार्यशावक केदक वामपस्यमय ही होता है, विषय विशेषितहानपक्षम्य नहीं होता। इसलिये उप सम्जिकर्ष से अहं सानयान' इस प्रकार के विषयमुक्त वान का प्रत्यक्ष होने में कोई बाबा नहीं हो सकती। शा. मा. ३४
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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