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________________ २६४ ... शास्नधासारामबाप-स्तबक १ "लो० ८५ यत्त ... "सान ज्ञानत्यं च विशिष्टज्ञानविषय एव अनुष्यबसायस्य विषय रूपविशे. पणविषयकव्यवसायसाध्यत्वेन विशिष्टज्ञानमामग्रीमच्चा, लानाबमपि तत्र भासते सामग्रोसरवाद, अंगो तत् समकारक निष्प्रकारकं चेति नरसिंहाकार, तत्रैव विशिष्ट ज्ञानस्ववैशिष्टयं च भासते, अनुमित्यादी च न नथा अनुष्यासायेऽनुमिमित्वाभावाद्' इति, 'वस्तुतस्तु०' इति कृत्वा निम्तमणिकत कम्' सनसन, सार्वत्रिकप्रकार विना क्वाचित प्रकाराभिधानस्य प्रयासमापवान्, अभावप्रत्यक्षस्य घटत्यायन्यतमविशिष्टविषयकनियमशानप्रत्यक्षे तन्नियमाभावान्, 'आं मुसी' दतिवन 'अहे मानवान दामि विषयविनिर्मुक्त प्रतिते सार्वजनीनखान, सम्निकर्षकार्यनायो विपयागर्भाचे गौरवात, ज्ञाने नृसिंहा कारतोपगमे विषयेऽपि तदभ्युपगमौनियेन म्याहादापाताच्च । सा मानने पर 'कानं पढीय नधा-शान में घट का शिव है या नहों ? यह सन्देह रहम पर भी कई घटज्ञानवान्' इस नाम की आपत्ति होगी । चिन्तामणिकारगत -निरसन| इस सन्दर्भ में चिन्तामणिकार ने 'घस्तुसस्नु' इत्यादि ग्रन्थ माग या प्रतिपादित किया है कि-'लाम मोर शानाय शुष निर्विकलाक के विषय न हो कर विविध ज्ञान के ही विषय इसे धै, क्योंकि अनुव्यवसाय में विषयविशिष्ट व्यवसाय का भान होता है अनः घर विशेषण को विपय काने वाले व्ययमायामयिशेषणशाम से जम्माना। इस जन्मता की लपति के लिये अनुध्ययमाय के पूर्व विशेषणविषयक व्यवसाय का होगा सौर उसके बल से व्ययामाग्यवाही शान में व्यवसाय के विशेषणका में विषय का भान होना अनिवार्य है, क्योंकि विशिवान को सामग्री के उपस्थित रहने पर पिजिनाम की उत्पत्ति ही स्वाभाविक है । इस लिये व्यवसाय के अनमार होने घाले शान में व्यय साप के विशेषणरूप से विषय का मान होने से मांग व्यवसाय में सामग्य के सम्पध का भान न होकर स्वतन्त्र रूप से मानन्ध का भान होने से घर जाच 'घटीय (हान) बानाधं ब' अथवा 'घटीयमानाये' इस प्रकार का होता है. मोर इसीलिये बह "शाम' अंश में सप्रकारक भाग. 'शानाय' अश में निगमकारक होने से नरसिहाकार बान कहा जाता है। यह भारसिंहाकारमान ध्यघमास के नीसरे क्षण में रहता है। अपनः उस क्षण में उस ज्ञान में विषयवैशिष और शान शिव का भान होने में कोई बाधक न होने से घही शान उस धपा में 'घट जानामि' इस प्रकार के अन्यबसायरूप में उत्पन्न होता है। कहने का आशय यह है कि पहले क्षण में उत्पन्न दाने वाला घट का व्यावसाय दूसरे क्षण में केवल पठीय-घटनधीरुप में शान होना किन्त रमानन्धर से नfine होता । तीसरे क्षण में तो यह नष्ट होता है. अतः उस क्षण में किसी भी रूप में उसके सोने कीबोरी सघना भी नहीं हो सकती। फलतः तीसरे में परमान स्वरूप से प्रत्यक्ष होनेवाला हान पहले श्रण में उत्पन्न हनिवाला घट का पयमाय नहीं होता, अपितु दूसरे पक्ष में उत्पन्न होनेयाला पटीयार में पटध्ययसाय को ही प्रारण करनेवाला गासिंहाकार शाम होता है।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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