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________________ स्वा० क० टीका व०ि ि 專案 विश्वको तरमनुमित्ययोगात्, अन्यत्रानुमितित्वाभावात् 'अनुमनोमि' इत्यनुपपणे, पूर्वव्यवसाय विशेष्यकज्ञानस्य कथमप्यनुपपत्ते । एतेन ज्ञानं ज्ञानत्वं च निर्षिकल्प के मांसते तो ज्ञानत्ववैशिष ज्ञाने ज्ञानवैशिष्टयं चात्मनि भासते इति विशेष्ये विशेषणं तत्र व विशेषणम्" इतिरीच्या ज्ञानप्रत्यक्षस्यम्' इति मिलम् 'ज्ञानं घटीर्य न वा ?' इति सन्देहेऽपि बुद्धिप्रसङ्गाच्च । वक प्रकार की कल्पना की शरण लेने पर भी 'अनुमितोम' इस मनुष्यवसाय की उपपत्ति वो नहीं की जा सकती, क्योंकि प्रथम क्षण में जिस विषय का अनुमित्यात्मक व्यवसाय उत्पन्न होगा, द्वितीय क्षण में अनुमिति पर्व अनुमितित्य का निर्विकल्पक होने के बार तृतीय क्षण में उस दिन की अनुमिति की उत्पांस को नहीं सकती क्योंकि उसके पूर्व व्याप्तिज्ञान आदि अनुमिति के कारणों का स्वभाव है। और उस समय ओ ज्ञान मनुमिति और अनुमितित्धका विविकल्पक विमान है उसमें अनुमति है नहीं, अतः अनुमितित्वरूप से ज्ञान होने योग्य किसी ज्ञान की सत्ता न होने से अनुमतिस्व रूप से ज्ञान का अवगाहस करनेवाले 'अनुमितोम' ख्याकारक अनुष्यवसाय का उपदन असम्भव है । (३) इस कल्पना में एक ओर त्रुटि है जिसका परिहार नहीं हो सकतावह यह कि इस कला को स्वीकार करने पर भी 'तथि घटकानम इस पूर्वोक व्यवसाय विशेष्यक अनुष्यवसाय की उप नहीं हो सकती, क्योंकि यह अनुव्यवसाय घटविषयक विशिष्टज्ञान में मध्य को विषय करता है। अतः इसके लिये विवकरमरूप से ज्ञानज्ञान आवश्यक है। कर्मोक जमेत्रिशिविशेष्यत्यक्ष में प्रका रेण विशेष्य का ज्ञान कारण होता है ओर यह ज्ञान इस कल्पना में भी सम्भव नहीं है क्योंकि इस अनुध्ययनाथ से पूर्व जो नया बटशान उत्पन्न होगा. वह उस समय पटविषयक ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि उसके पूर्व उसके साथ मन का सन्निकर्ष नहीं है, और घटान भी घीयस्वरूप से ज्ञात नहीं हो सकता, क्योंकि यह स्वयं नहीं है | अतः भात्मा में ज्ञान को और ज्ञान में घट की विशेषण से अक्षमा हम करनेवाले 'अहं परवान्' इस मनुष्यवसाय की किसी प्रकार उपपत्ति हो सकने पर भी शिकवेन शामशानरूप कारण के अभाव से अमुव्यवसाय की उपपति तो नहीं ही की जा सकती । मशिनम् [विशेष्य में विशेg .... इत्यादिति से ज्ञानप्रत्यक्ष परिहार ] किसी का कहना यह है कि "घटज्ञान की उत्पत्ति के बाद शाम और सामन्य का निधिकल्पक हो कर अग्रिमक्षण में 'भई घटशानयानू' इस मनुष्यवसाय की उत्पत्ति हो सकती है, क्योंकि यह ज्ञान आस्मा में प्रात्यविशिष्ट के वैशिष्टय का अवगाहन न कर विशेष विशेषणं, समाधि विशेषणम्' इस गीति से आत्मा में ज्ञानवैशिष्ट्य और साम मैं सागरवधैशिष्ठय का अवगाहन करता है। अतः इसकी उत्पत्ति के लिये बान और का निर्मिक पर्याप्त है, हिन्तु घटखानत्वेन घटान के ज्ञान की अपेक्षा नहीं - वर यह नहीं है क्योंकि इस पद्धति को अपनाने पर भी 'मथि घटमानम्' इस मनुष्यलाय की उपपत्ति नहीं हो सकती साथ हो विविशेषणं विशेषणम्' इस रीति से अदं घरानवान् रस पान की भी उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती, क्योंकि
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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