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________________ २६२ हास्यवातासमुच्चय-रसबक १ [को० ॥ ने पापयांशमममनदीपाद निवायास् 'भाकाचं पश्याम' इत्यादाविषोपपतिः 'घर्ट पश्यामि' इत्यत्र सर्वापाप्रमाया एवानुभवात् । दिदमुक्तं स्याहादरत्नाकरे "कि 'प, इन्द्रिय प्रत्यक्ष सग्निकुण्टे विषये प्ररत ने, अतीतक्षमनिनधनानस्य मनो. लक्षणेनियसमिकों न पुज्यने, सतः कथं प्राचीनहाने मानसप्रत्यक्षबाचाऽपि ? इति । 'व्यवसायनापक्षणोल्पामच्यवसायान्तर झानत्वविशिष्ट्युद्धिा' इत्यायत पत्र निरस्तस, वद्धतावासभिकादेस्तदानीं नियतसमिधिकत्वाभावान्, अनुमित्युखरज्ञानल्यनिज्ञानरूप मानलक्षणसनिक से घठमान का अलौकिक भान होगा। इस प्रकार घटनामरूप ध्यबसाय के न रहने पर भी बस अश में मलौकिकप्रत्यक्षात्मक 'घर्ट जानामि' स्याकारक अनुध्ययसाय के होने में कोई बाधा नहीं है" किन्तु विवार करने पर इस रीति से व्यवसाय के अमुव्यवसाय का उपवन अचिन नहीं प्रतीत होता, क्योंकि इस प्रकार के उपपादन से 'घई परामि' इस प्रयोग की उपत्ति नहीं की जा सकती, कारण यह कि पस प्रयोग से जिस गनुष्यवसाय का अभिलाप होता है, पटवानुष में उसकी अलौकिकविषयता से बिलनणयापयता प्रतीत होती है, और जिस प्रत्यक्ष की भलोकिक विषयता से बिलसणविषयता जिस विषय में दोनी पर स्वयं विधमान होकर उस प्रत्यक्ष का नियामक होता है. धनः घटयाक्षुष के गभायकाल में उसका शानुष्यवसाय हो सकने से उसके मिलापार्थ 'घर्ट पश्यामि न प्रयोग न हो सकेगा। निःशुपक्षश में श्रमजनक दोष से 'घर पश्याग' की उपत्ति मशक्य] यदि यह कई कि ... अखे मिद्रा अवस्था में वायुपत्यभ्रम के अनक शेप का सन्निधान होने पर पानीनन आकाशस्मरण में चाशुपत्र को यिय करने वाले 'आकाशे पश्यामि सि मान की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार जातिकाल में अनुष्यवसाय के सम्वर्म में भी शानिर्षिकबारक के भनम्तर उत्पन्न समानुष घरवान में भी चाक्षुषत्वभ्रमझनक होष से वायूपन्य को विश्य करने वाले 'टं पक्ष्यामि'समान की उत्पत्ति मौर उसके द्वारा 'पद पपयामि' इस प्रयोग को उपपति हो सकता है"-ता रह ठीक नहीं है. क्योंकि 'घर' पश्यामि' इस अनुष्यवसाय में सर्वाश में प्रमान का अनुभव होता है, जो पसे चाक्षुषाध मघा में भ्रमरूप मानने पर असंगत दो मायगा। हान के मानस प्रत्यक्ष की यह अनुपत्ति 'स्थावादरत्नाकर' में इस प्रकार चबित है कि-"इन्दियजन्य प्रत्यक्ष सन्मिए विषय में ही होता है, और अतीतमाम के साथ ममरूपायिका सरिक हो नहीं सकता: अतः प्राचीन शाम के मानस प्रत्यक्ष की पात भी नहीं हो सकती।" [यवसायानर की उत्पत्ति की मिथ्या कल्पना ] कुछ लोगों का कहना है कि-'ययसाय के नाशक्षण में उसीभकार का दूसरा भ्यवसाय उत्पन्न हो जाता है, उसी में जानत्व के वैशिषय को विपथ करने वाले अनु. अपसाय की उत्पसि हस्ती है'-किरमु. ५६ नाक नहीं है, क्योंकि (२) उस समय विषय के साथ चक्षु गादि के सन्निकर्ष का नियम न होने से अनुन्यबसाय के पूर्व सवा व्ययलायाम्बर की उत्पत्ति की कल्पना नहीं की जा सकती भौर (२) दूसरी बात यह कि
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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