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________________ स्था० ० टीका प दि० वि० २६१ एतेन 'ज्ञानत्यनिर्विकल्पकमन्याने घटस्पायुपनीतस्य भानात् तत्र धर्तमानत्वभान सूपपदम्' इत्युक्ता अपि न निस्तारः, व्यव गय प्रत्यक्षानुपपादनात 'घरं पश्यामि' इति प्रयोगानुपपश्च । एतेन 'यदि च जास्यतिरिक्तस्य फिधिद्धर्मप्रकारेण भाननियमाद् मानविशिष्टयुद्धी ज्ञान विशेष्यफनानमेव हेतु, तदा निर्विकल्पकोत्तरमपि 'ज्ञानम्' इति ज्ञान प्रहे 'जानामि' इति मानांशेनौकिकप्रत्यक्ष मूषपदम्' इत्पपास्तभू ,घटनाक्षपांशेऽलीकिात्ततः 'पश्यामि' इत्यपयोगात्. 'पश्यामि इति विक्षणविषयतयाचव्यवसाये विलक्षणविषयतया चाक्षुषस्य नियामकत्वेन नदभावं तदनुपपत्तः।। प्रत्यक्ष के समान 'मधि घटानम्' इस घटानविशेष्यक प्ररपान भी गनुभयसिस है, और भनुमसिम का प्रसार फेत्र र इच्छामात्र से नहीं किया जा सकता । सान के परप्रकाश्यता पक्ष में 'घदम जानामि इस प्रत्यक्ष में घशान में यन मानव के भान को जो अनुपनि बनाया गया है. घर मा ज्यों की रौ है। यदि इसके परिवागर्थ यह कल्पना की जाय कि "शामत्य के निर्षिकरुप से प्रो नान का नाम उत्पन्न होता है, इसमें शाम के विशेषगारूप में उपनीत घट का भी मान होता है, अर्थात् बह 'ज्ञानज्ञानम' त्या कारक न होकर घटज्ञानम्' इत्याकारक होता है, जो 'घटे जानामि' इस प्रत्यक्ष काल में भी रहता है, अतः इस प्रत्यक्ष को विशेषपक्षानान्मकघरज्ञान में पर्तमानव का प्राइक मान लेने से उस प्रत्यक्ष में घवज्ञान में वर्तमानस्य का माम माम्म हो सकता है"-तो साक नहा है, क्योंकि पेसा मानने पर अषसायमानामक विशेषण शान के प्रत्यक्ष का पालन होने पर भो व्यवसाय के प्रत्यक्ष का उपपावन न हो सकेगा। और इसकी बात यह है कि विशेषण नानाभिक घटशान तो मानसमान है, भानुचज्ञान सो है नहीं, अतः उसमें यमानत्य का भान मानने पर भी 'घटे पश्यामि' इस प्रयोग की उपाशि तो नहीं हो सफेगा, क्योंकि यद प्रयोग घटवानुष में वर्तमामय का बोधक है. गौर घटनाक्षुष के प्रतीत हो जाने से उसमें वर्तमानस्य का सम्भव नहीं है। ज्ञाग के अलोकि प्रत्यक्ष की पति का नल प्रयास माम को परप्रकाश्य मानने वाले लोग मान के अनुषयमाय का उपपादन करने के लिये पक प्रयास यह करते हैं कि "घ जानामि' इस अनुयायसाय के समय घटज्ञान के न रह से उसमें उसका लौकिकमान तो नहीं हो सकता, पर मलौकिकभान हो सकता। उनके कान का आशय या कि घतान उत्पन्न होने पर मानव मिपिकापक के पाय जो घरहानरूप विशेषण का ज्ञान उत्पन्न होता है। यह झाम को विशेषणरूप में विषय नहीं कर सकता, क्योंकि उसमें यदि ज्ञान विशेषण के रूप में भासित होगा नो उसका भाम किसिद्धर्मप्रकारेण माजना होगा, क्योंकि यह नियम है कि 'जानि में निरिक्त पदार्थ किञ्चिद्धर्मप्रकारेणेव विशेषण होता है, अतः यदि उस ज्ञान में शाम 'यशेषण होगा तो या ज्ञान जानामि' ल्याकारक होगा, और AT उस समय हो नहीं सकता क्योंकि इसके लिये प्रामस्पेन जान का मान अपेश्रित है, जो ज्ञामत्व के निधिकलाक काल में नहो, अनः घा. शान 'जानम्' याकारक अथवा 'रानम्'स्याकारक होगा और उसके बाद जो मनुष्यवसाय बोगा उसमें घटतान
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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